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________________ -२८ | योगदृष्टि समुच्चय [ ८ ] बीजं परार्थकरणं सिद्धमवन्ध्यं सर्वयोगिनाम् । परिशुद्धमतोऽत्र च ॥ श्रुत, शील तथा समाधि का परम बीज -- मुख्य कारण, सब योगियों को सिद्ध तथा अचूक फलप्रद परिशुद्ध-- शुद्ध भावना से सम्पादित परोपकार है । उसी में लगाव या आग्रह रखना संगत है । [ ६० ] अविद्यासंगताः प्रायो विकल्पाः सर्व एव यत् । तद्योजनात्मकश्चैव कुतर्क : किमनेन तत् ॥ चास्य जातिप्रायश्च हस्ती परं सभी विकल्प -- शब्दविकल्प, अर्थविकल्प आदि प्रायशा अविद्यासंगत - - अविद्या के सहवर्ती हैं, ज्ञानावरणीय आदि के उदय से निष्पन्न हैं । उन (अविद्यासंगत ) विकल्पों का योजक - - उत्पादक, एक-दूसरे के साथ जोड़ने वाला कुतर्क है । अत: ऐसे कुतर्क से क्या प्रयोजन ! [ १ ] प्रतीतिफलबाधितः । सर्वोऽयं व्यापादयत्युक्तौ प्राप्ताप्राप्त विकल्पवत् ॥ सारा कुतर्क, जो प्रतीति और फल से रहित है -- जिससे चर्चित वस्तु का प्रत्यय नहीं होता, उसके सम्बन्ध में संशयात्मकता बनी रहती है तथा जिससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, दूषणाभास -प्रधान है । अर्थात् वह प्रायः हर कहीं दूषण जैसे दिखाई देते छिद्र खोजता रहता है । I Jain Education International येन इस सन्दर्भ में एक दृष्टान्त है -- न्यायशास्त्र का एक विद्यार्थी कहीं से आ रहा था । मार्ग में एक मदोन्मत्त हाथी मिला, जिस पर बैठा महावत चिल्लाया-- दूर हट जाओ, यह हाथी मार डालता है । नैयायिक विद्यार्थी ने तर्क किया -- हाथी पास में अवस्थित को मारता है या पास में अनवस्थित को मारता है ? इतने में हाथी उस पर झपट पड़ा। महावत ने किसी प्रकार उसे छुड़ाकर बचाया । नैयायिक विद्यार्थी का यह तर्क कुतर्क था, महावत के कथन में दोष खोजने वाला या उसका खण्डन करने वाला था । उसका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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