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दीपा-दृष्टि | १६
साधक यों सात्त्विक भावों से आप्यायित हो जाता है। वह तत्त्वश्रवण में तत्पर रहता है। आत्मबल के सहारे धर्म को प्राणों से भी बढ़कर मानता है।
__ [ ६१ ] क्षाराम्भस्त्यागतो यद्वन्मधुरोदकयोगतः ।
बीजं प्ररोहमाधत्ते . तद्वत्तत्त्वश्रु तेर्नरः ॥
खारे पानी के त्याग और मीठे पानी के योग से जैसे बीज उग जाता है, उसी प्रकार तत्त्व-श्रवण से साधक के मन में बोध-बीज अंकुरित हो जाता है।
प्ररोह शब्द का एक अर्थ बीज का उगना या अंकुरित होना है, दूसरा अर्थ उपर चढ़ना या आगे बढ़ना भी है। इस दूसरे अर्थ के अनुसार साधक साधना-सोपान पर चढ़ता जाता है अथवा साधना-पथ पर आगे बढ़ता जाता है।
_[ ६२ ]
क्षाराम्भस्तुल्य इह च भवयोगोऽखिलो मतः ।
मधुरोदकयोगेन समा तत्वश्रुतिस्तथा ॥
भवयोग-सांसारिक प्रसंग-जागतिक पदार्थ एवं भोग खारे पानी के समान माने गये हैं तथा तत्त्व-श्रवण मधुर जल के समान है।
[ ६३ ] अतस्तु नियमादेव कल्याणमखिलं नृणाम् । गुरुभक्तिसुखोपेतं
लोकद्वयहितावहम् ॥ अतः तत्त्व-श्रवण से नियमतः-निश्चित रूपेण साधक जनों का सम्पूर्ण कल्याण सधता है। इससे गुरुभक्ति रूप सुख प्राप्त होता है और यह ऐहिक तथा पारलौकिक-दोनों अपेक्षाओं से हितकर है।
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