SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपा-दृष्टि | १७ [ ५५ ] शुभयोगसमारम्भे न क्षेपोऽस्यां कदाचन । उपायकौशलं चापि चारु तद्विषयं भवेत् ॥ इस दृष्टि को प्राप्त कर लेने पर योगी के ध्यान, चिन्तन, मनन आदि शुभ योगमूलक कार्यों में विक्षेप नहीं आता। वह अपने शुभ समारम्भमय उपक्रम में कुशलता-निपुणता प्राप्त करता जाता है। [ ५६ . ] परिष्कारगतः प्रायो विघातोऽपि न विद्यते । अविघातश्च सायद्यपरिहारान्महोदयः॥ परिष्कार-उपकरण-अध्यात्म-साधना में उपकारक या सहायक साधनों के सन्दर्भ में उसके इच्छा-प्रतिबन्ध नहीं होता। अर्थात् साधन को ही सब कुछ मानकर वह उसमें अटका नहीं रहता। आत्मसिद्धिरूप साध्य अधिगत करने में सदा प्रयत्नशील रहता है। पापपूर्ण प्रवृत्तियों का वह परित्याग कर देता है अत: योग-साधना में उसके अविघात-इच्छाप्रतिबन्ध आदि विघ्नों का अभाव हो जाता है। फलतः महान्-उत्कृष्ट आत्म-अभ्युदय सधता है। दोप्रा-दृष्टि [ ५७ ] प्राणायामवती दीप्रा न योगोत्थानवत्यलम् । तत्वश्रवणसंयुक्ता सूक्ष्मबोधविजिता ॥ दीपा दृष्टि में प्राणायाम' सिद्ध होता है। वहाँ अन्तरतम में ऐसे प्रशान्त रस का सहज प्रवाह बहता रहता है कि चित्त योग में से उठता नहीं, हटता नहीं, अन्यत्र जाता नहीं। यहाँ तत्त्व-श्रवण सधता है-तत्त्व सुनने-समझने के प्रसंग प्राप्त रहते हैं-केवल बाहरी कानों से नहीं, १ तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणाय म: । . -पातंजल योगसूत्र २-४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy