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________________ तीर्थंकर [ १७ मुनीन्द्रों द्वारा तीर्थकर की वंदना तथा भक्ति में लोकोत्तरता स्पष्ट होती है । तीर्थंकर भक्ति का यह पाठ बड़े-बड़े साधुजन पढ़ा करते “इच्छामि भंते चउवीस-तित्थयरभत्ति काउसगो को तस्सालोचेउं पंचमहाकल्लाणसंपण्णाणं अट्टमहापाडिहेरसहियाणं चउतीस-प्रतिसयविसेस-संजुत्ताणं, बत्तीस-देविंद-मणिमउड-मत्थयमहियाणं, बलदेववासुदेव-चक्कहर-रिसि-मणि-जइ-अणगारोवगूढाणं थुइसयसहरस णिलयाणं उसहाइ-बोरपच्छिममंगलमहापरिसाणं भत्तिए णिच्चकालं अच्चमि पुज्जेमि वंदामि णमंसामि, दुक्खवखो, कम्मवखो, बोहिलाहो सुगइ-गमणं समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं । हे भगवान् ! मैं समस्त दोषों को दूर करने के लिए चौबीस तीर्थंकरों की भक्तिरूप कायोत्सर्ग धारण करता हुआ अपने पूर्वकृत कर्मों की आलोचना करता हूँ। पंचमहाकल्याणकों से सुशोभित, अष्टमहाप्रातिहार्य से युक्त चौतीस अतिशय विशेष संयुक्त, बत्तीस देवेन्द्रों के मणिमय मुकुट समलंकृत मस्तकों के द्वारा पूजित, बलदेव वासुदेव, चक्रवर्ती, ऋषि, मुनि, यति, अनगार इनके द्वारा वेष्टित, शत-सहस्त्र अर्थात् लाखों स्तुतियों के स्थान, वृषभादि महावीर पर्यन्त मङ्गल पुरुषों की मैं सर्वकाल अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ। मैं उनको प्रणाम करता हूँ। मेरे दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय का लाभ हो, सुगति में गमन हो । समाधि पूर्वक मरण हो । जिनेन्द्र की गुण-सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो । इस तीर्थंकर भक्ति में उनकी अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया गया है । वृषभादि महावीर पर्यंत चौबीस तीर्थंकरों का प्रथम विशेषण है, "पंच-महाकल्लाणसंपण्णाणं"-वे पंच महान कल्याणकों को प्राप्त हैं, अतएव प्रभु के पंच कल्याणकों आदि के विषय में प्रकाश डालना उचित प्रतीत होता है, कारण वे तीर्थंकर को छोड़ अन्य जीवों में नहीं पाए जाते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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