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________________ ( २५ ) ब्रह्मचारी उग्र तपस्वी पार्श्वनाथ तीर्थंकर का प्रभाव उपनिषद् कालीन भारतीय के जीवन पर स्पष्टतया सूचित होता है। ____ शान्त भाव से चिन्तन तत्पर सत्यान्वेषी इस सत्य को भी स्वीकार करेगा कि बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ का भी महान् प्रभाव रहा है। बालब्रह्मचारी तथा करुणा के सागर भगवान नेमिनाथ को अरिष्ट नेमि कहकर उनकी वेद में स्तुति की गई है :--- स्वस्ति न इंद्रो, वृद्धश्रवा, स्वस्ति नः पूषा, विश्ववेदा, स्वस्ति नस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ ऋग्वेद अष्टक १ अध्याय ६ वे अरिष्टनेमि हमारा कल्याण करें, जो इंद्र (परमेश्वर) है, जो वृद्धश्रवा (जिनका यश वृद्धों में विख्यात है) हैं, सूर्य के समान पोषण प्रदाता होने से पूषा है, विश्व के ज्ञाता सर्वज्ञ है, जो तार्क्ष्य अर्थात् महाज्ञानियों के वंश वाले हैं, तथा जो बृहस्पति हैं अर्थात् महान् देवों के अधिपति हैं। मंत्र में पागत शब्द 'वृद्धश्रवा'~-वृद्धों में जिनका यश वर्तमान है, महत्वपूर्ण है। इससे यह ध्वनित होता है कि इस मंत्र की रचना के पूर्व भगवान अरिष्टनेमि विद्यमान थे। इन तीर्थंकर नेमिनाथ की आत्मनिर्भरता की शिक्षा का स्पाट प्रतिबिम्ब इस पद्य में पाया जाता है। उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । प्रात्मैव ह्यात्मनोबंधुः प्रात्मैव रिपु प्रात्मनः॥ उक्त पद्य के साथ पूज्यपाद स्वामी के समाधि शतक का यह दलोक तुलना के योग्य है :--- नयत्यात्मानमात्मैव जन्म-निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मनस्तस्मानान्योस्ति परमार्थतः ॥७५॥ यह आत्मा ही जीव को संसार में भ्रमण कराता है तथा निर्वाण प्राप्त कराता है। इससे परामर्थ दृष्टि से आत्मा का कोई अन्य गुरु नहीं है । आत्म-निर्भरता का भाव गीता के इस पद्य द्वारा भी व्यक्त होता है : न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न च कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ नादत कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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