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________________ ( २४ ) नरेशों के नेतृत्व में अहिंसा और ग्रात्मविद्या का प्रभाव बढ़ा, अतएव उपनिषद् कालीन विप्रगण आत्मविद्या की शिक्षा-दीक्षा के लिये कुरुपांचाल देश से मगध तथा विदेह की ओर आने लगे थे । अहिंसावादी लोग एक विशेष भाषा का उपयोग करते थे, जिसमें 'न' के स्थान में 'ण' का प्रयोग किया जाता था । यह स्पष्टलया प्राकृत भाषा के प्रचार तथा प्रभाव को सूचित करती थी । (१) विचारक वर्ग के समक्ष यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वेदकालीन भारतीय अग्नि, सूर्य, चन्द्र, उपस्, इन्द्रादि की स्तुति करता था । इन प्राकृतिक वस्तुओं की अभिवंदना करते हुए वह व्यक्ति उपनिषद् काल में उच्च आत्मविद्या की ओर झुक जाता है । पहले वह स्वर्ग की कामना करता हुआ कहता थ. " ग्रग्निष्टोमेन यजेत् स्वर्गकामः", किन्तु उपनिषद काल में वह भौतिक वैभव की ओर आकर्षणहीन बनकर आत्मविद्या तथा अमृतत्व की चर्चा में संलग्न पाया जाता है । नचिकेता सदृश बालक समस्त वैभव का लालच दिए जाने पर भी उसकी ओर आकर्षित न होकर अमृतत्व के रहस्य को स्पष्ट करने के लिए यम से अनुरोध करता है; मैत्रीय याज्ञवल्क्य से धन के प्रति निस्पृहता व्यक्त करती हुई अमृतत्व की उच्च चर्चा करती है । इस प्रकार उपनिषद् कालीन व्यक्ति के दृष्टिकोण में अद्भुत परिवर्तन का क्या कारण है ? स्वामी समन्तभद्र के कथन से इस विषय में महत्वपूर्ण प्रकाश प्राप्त होता है | भगवान महावीर से २५० वर्ष पूर्ववर्ती भगवान पार्श्वनाथ की तपोमयी श्रेष्ठ साधना के द्वारा अरण्यवासी तपस्वियों को सत्य-तत्व की उपलब्धि हुई थी तथा उन्होंने पार्श्वनाथ भगवान का शरण ग्रहण किया था । उनके स्वयंभूस्तोत्र में ग्रागत यह पद्य मनन योग्य है यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं तपोधनास्तेपि तथा बुभूषुवः । वनौकस स्वश्रमवंध्यबुद्धयः शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे ॥ "दोष मुक्त भगवान पार्श्वनाथ को देख कर वनवासी तपस्वियों ने, जिनका श्रम व्यर्थ जा रहा था तथा जो पार्श्वनाथ प्रभु के समान निर्दोष स्थिति को प्राप्त करना चाहते थे, भगवान के शान्तिमय - अहिंसा पूर्ण उपदेश का शरण ग्रहण किया ।" पद्य में प्रगत "वनौकसः" शब्द वन में निवास करने वाले आरण्यक, 'तपोधनाः' - तपस्वियों को सूचित करता है । बाल (1) Prof. A. Chakravarty's article in 'The Cultural Heritage of India.' Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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