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________________ तीर्थंकर [ ३०७ नहीं है । वे जन्म, मरणादि रूप सहज दुःख, रागादि से उद्भूत शारीरिक दुःख, सर्पादि से उत्पन्न प्रागंतुक पीड़ा, प्राकुलता रूप मानसिक व्यथा आदि के संताप से रहित होने से शीतलता प्राप्त हैं, अतएव सुखी हैं । इससे साँख्यमत की कल्पना का निराकरण होता है, क्योंकि वह सांख्य मुक्तात्मा के सुख का प्रभाव कहता है :- " अनेन मुक्तौ प्रात्मनः सुखाभावं वदन् सांख्यमतमपाकृतम्” वे भगवान कर्मों के प्रस्रव रूप मल रहित होने से निरंजन हैं । इससे सन्यासी ( मस्करी नामके ) मत का निराकरण होता है, जो कहता है, "मुक्तात्मनः पुनः कर्मा जनसंसर्गेण संसारोस्ति". मुक्तात्मा के फिर से कर्मरूपी मल के संसर्ग होने के कारण संसार होता है । वे सिद्ध प्रति समय अर्थपर्यायों द्वारा परिणमन युक्त होते हुए उत्पाद - व्यय को प्राप्त करते हैं तथा विशुद्ध चैतन्य - स्वभाव के सामान्य भाव रूप जो द्रव्य का आकार है वह अन्वय रूप है, उसके कारण सर्व कालाश्रित अव्यय रूप होने से वे नित्यता युक्त हैं । इससे "परमार्थतो नित्यद्रव्यं न" - वास्तव में कोई नित्य पदार्थ नहीं है, किन्तु प्रतिक्षण विनाशीक पर्याय मात्र हैं, इस बौद्ध मत का निराकरण होता है । वे वे ज्ञानवीर्यादि प्रष्ट गुणयुक्त हैं । " इत्युपलक्षणं तेन तदनुसार्यानंतगुणानां तेष्वेवांतर्भावः " - में आठ गुण उपलक्षण मात्र हैं । इनमें उन गुणों के अनुसारी अनंतानंत गुणों का अंतर्भाव हो जाता है । इससे नैयायिक तथा वैशेषिक मतों का निराकरण हो जाता है; जो कहते हैं, "ज्ञानादिगुणा-नामत्यंतोच्छित्तिरात्मनो मुक्तिः " -- ज्ञानादि गुणों के प्रत्यन्ताभाव रूप मोक्ष है । वे भगवान कृतकृत्य हैं, क्योंकि उन्होंने “कृतं निष्ठापितं कृत्यं सकलकर्मक्षयतत्कारणानुष्ठानादिकं यैस्ते कृतकृत्याः, " सम्यग्दर्शन चारित्रादि के अनुष्ठान द्वारा सकल कर्मक्षय रूप कृत्य अर्थात् कार्य को संपन्न कर लिया है । इससे उस मान्यता का निराकरण होता है, जिसमें सदामुक्त ईश्वर को विश्व निर्माण में संलग्न बताकर अकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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