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तीर्थकर है । 'पंडा यस्यास्ति असौ पंडितः ।" जिसके पंडा का सद्भाव है, वह पंडित है । मूलाराधाना टीका में लिखा है :-- “पंडा हि रत्नत्रयपरिणता बुद्धिः” (पृष्ठ १०५) रत्नत्रय धर्म धारण में उपयुक्त बुद्धि पण्डा है । उससे अलंकृत व्यक्ति पंडित है । सच्चा पांडित्य तो तब ही शोभायमान होता है, जब जीव हीनाचरण का त्याग कर विशुद्ध प्रवृत्ति द्वारा अपनी आत्मा को समलंकृत करता है। प्रागम में व्यवहार पंडित, दर्शन पंडित, ज्ञान पंडित तथा चारित्र पंडित रूप से पंडित के भेद कहे गए हैं। अयोगी जिन परिपूर्ण दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र से संपन्न होने के कारण पंडित-पंडित हैं । उनका शरीरान्त पंडित-पंडित मरण है । इसके पश्चात् उस आत्मा का मरण पुनः नहीं होता है । जिस शुद्धोपयोगी, ज्ञान चेतना का अमृत पान करने वाले को ऐसा समाधिमरण प्राप्त होता है, उसको जिनेन्द्र की अष्ट गुण रूप संपत्ति की प्राप्ति होती है । ऐसी अपूर्व अवस्था की सदा अभिलाषा की जाती है । संपूर्ण जगत में छह माह पाठ समय में छह सौ आठ महान आत्माओं को आत्मगुण रूप विभूतियां प्राप्त होती हैं ।
निर्वाण कल्याणक की श्रेष्ठता
जीवन में मोक्ष प्राप्ति से बढ़कर श्रेष्ट क्षण नहीं हो सकता है । अतएव विचारवान व्यक्ति की दृष्टि से निर्वाण कल्याणक का सर्वोपरि महत्व है । वह अवस्था प्रात्मगुणों का चितवन करते हुए जीवन को उज्ज्वल बनाने की प्रेरणा प्रदान करती है।
शरीर का अंतिम संस्कार
शरीरं भर्तुरस्येति परार्ध्य-शिविकापितम् । अग्नीन्द्र-रत्नाभा-भासि-प्रोत्तुंग-मुकुटोद्भवा ॥४७ पर्व, ३४४॥ चंदनाऽगरु-कर्पूर-पारी-काश्मीरजादिभिः । घत-क्षीरादिभि श्वाप्तवृद्धिना हुतभोजिना ॥३४५॥ जगद् गृहस्य सौगंध्यं संपाद्याभूतपूर्वकं ।। तदाकारोपमद्देन पर्यायान्तरमानयन् ॥३४६, म० पु०॥
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