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________________ तीर्थकर [ २६९ महान तथा उच्च योगी होगा, उसकी समाधि उसी प्रकार की रहेगी। योगी यदि सर्वोच्च है, तथा पूर्ण समर्थ हैं, तो उनकी समाधि भी श्रेष्ठ रहेगी। सिद्ध भगवान परम समाधि में सर्वदा निमग्न रहते हैं । उनकी आत्म-समाधि कभी भी भंग न होगी, कारण अब क्षुधा, तृषादि की व्यथा का क्षय हो गया । भौतिक जड़ शरीर भी अब नहीं है । अब वे ज्ञान-शरीरी बन गए हैं। इस शुद्ध प्रात्म-समाधि में उन्हें अनंत तथा अक्षय आनन्द प्राप्त होता है। उस परब्रह्म समाधि में निमग्न रहने से उनमें बहिर्मुखी वृत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है । जब तक ऋषभनाथ भगवान सयोगी तथा अयोगी जिन थे, तब तक वे सकल (शरीर) परमात्मा थे। उनके भव्यत्व नामका पारिणामिक भाव था। जिस क्षण वे सिद्ध भगवान हुए उसी समय वे नि-कल परमात्मा हो गए । भव्यत्व भाव भी दूर हो गया। अभव्य तो वे थे ही नहीं। भव्यपना विद्यमान था, वह भी दूर हो गया । इससे वे अभव्य-भव्य विकल्प से भी विमुक्त हो गए । कैलाशगिरि से एक समय में ही ऋजुगति द्वारा उर्ध्वगमन करके अादि भगवान सिद्धभूमि में पहुंच गए। वहां वे अनंत सिद्धों के समूह में सम्मिलित हो गए। वहां उनका व्यक्तित्व नष्ट नहीं होता है । वेदान्ती मानते हैं ब्रह्मदर्शन के पश्चात् जीव परम ब्रह्म में विलीन होकर स्वयं के अस्तित्व से शून्य होता है। सर्वज्ञ प्रणीत परमागम कहता है, कि सत् का नाश नहीं होता; अतएव सिद्ध भगवान स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल तथा स्वभाव में अवस्थित रहते हैं। साम्यता इस प्रसंग में एक बात ध्यान देने की है, कि सिद्ध भगवान सभी समान हैं । अनंत प्रकार के जो संसारी जीवों में कर्मकृत भेद पाए जाते हैं, उनका वहां अभाव है । सभी सिद्ध परमात्मा एक से हैं, एक नहीं हैं। उनमें सादृश्य है, एकत्व नहीं है । कोई कोई संप्रदाय मुक्ति प्राप्त करने वालों का ब्रह्म में विलीन होना मानकर एक ब्रह्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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