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________________ २६८ ] तीर्थंकर समाधान - गंभीर चिंतन से पता चलेगा, कि अपने ज्ञान द्वारा जब परमात्मा यह जानते हैं, कि मैं राग, द्वेष, मोहादि शत्रुनों के द्वारा अनंत दुःख भोग चुका हूँ, तब वे सर्वज्ञ, समर्थ तथा प्रात्मानन्द का रस पान करने वाले योगेश्वर परमात्मा क्यों पाप-पंक में डूबने का विचार करेंगे ? अपनी भूल के कारण पंजर-बद्ध बुद्धिमान पक्षी भी एक बार पिंजरे से छूटकर स्वतन्त्रता का उपभोग छोड़कर पुन: पिंजरे में आने का प्रयत्न नहीं करेगा ? तब निर्विकार, वीतराग, सर्वज्ञ, परमात्मा अपनी स्वतंत्रता को छोड़कर पुनः माता के गर्भ में आकर अत्यंत मलिन मानव शरीर धारण करने की कल्पना भी करेगा; यह विचार मनोविज्ञान तथा स्वस्थ विचारधारा के पूर्णतया विरुद्ध होगा । उनका कार्य प्रश्न-- सिद्ध पर्याय प्राप्त करने पर वे भगवान अनंतकाल पर्यन्त क्या कार्य करते हैं ? उत्तर-- भगवान अब कृतकृत्य हो चुके । उन्हें कोई काम करना बाकी नहीं रहा है । सर्वज्ञ होने से संसार का चिरकाल चलने वाला विविध रसमय नाटक उनके सदा ज्ञानांगोचर होता रहता है । उनके समान ही शुद्धोपयोग वाला तथा गुण वाला जीव विभाव का आश्रय ले चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता हुआ अनंत प्रकार का अभिनय करता है। विश्व के रंग मंच पर चलने वाले इस महानाटक का ये महाप्रभु निर्विकार भाव से प्रेक्षण करते हुए अपनी आत्मानुभूति का रस पान करते रहते हैं । 'सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रस लीन ।' परम समाधि में निमग्नता एक बात और यह हैं । सिद्ध भगवान योगीन्द्रों के भी परम आराध्य हैं । योगी जन समाधि के परम अनुरागी रहते हैं। जितना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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