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दृष्टि द्वारा भूमि का निरीक्षण करने के उपरान्त गमन करे, वस्त्र से छना हुआ पानी पीवे, सत्य से पुनीत वाणी बोले तथा पवित्र चित्त होकर कार्य करे।
भागवत में जो संत का स्वरूप कहा गया है, वह बहुत व्यापक है। उसमें दि० जैन मुनिराज अंतर्भूत हो जाते हैं। कहा भी है :--
सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदशिनः। निर्ममा निरहंकारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः ॥अध्याय २६, २७॥
सन्तों को किसी की भी अपेक्षा नहीं रहती है। वे अात्मस्वरूप में मन लगाते हैं । वे प्रशान्त रहते हैं तथा सब में साम्यभाव रखते हैं। वे ममता तथा अहंकार रहित रहते हैं । वे निर्द्वन्द्व रहते हैं तथा सर्व प्रकार के परिग्रह रहित होते हैं । ऐसी पवित्र माधुर्यपूर्ण समन्वयात्मक सामग्री को भूलकर समाज में असङ्गठन के बीज बोने वाले, संकीर्ण विचारवाले व्यक्ति विद्वेष-वर्धक सामग्री उपस्थित कर कलह भावना को प्रदीप्त करते हैं । गाँधी जी ने ऐसी संकीर्ण वृत्ति को एक प्रकार का पागलपन ( Insanity ) कहा था। उन्होंने सन् १९४७ में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के समक्ष कहा था
"It is to me obvious that if we do not cure ourselves of this insanity, we shall lose the freedom, we have won." ( Mahatma Gandhi, The last Phase Vol. II p. 516).
“मुझे तो यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है कि यदि हमने इस पागलपन का इलाज नहीं किया और रोगमुक्त न हुए तो हमने जिस स्वतन्त्रता को प्राप्त किया है, उसे हम खो बैठेंगे।" गाँधी जी ने सन् १९२४ के यङ्ग इण्डिया में ये महत्वपूर्ण शब्द लिखे थे-"इस समय आवश्यक्ता इस बात की नहीं है, कि सबका धर्म एक बना दिया जाए, बल्कि इस बात की है, कि भिन्न-भिन्न धर्म के अनुयायी और प्रेमी परस्पर आदरभाव और सहिष्णुता रखें । हम सब धर्मों को मृतवत एक सतह पर लाना नहीं चाहते, बल्कि चाहते हैं कि विविधता में एकता हो। हम सब धर्मों के प्रति समभाव रखना चाहिए। इससे अपने धर्म के प्रति उदासीनता नहीं उत्पन्न होती, परन्तु स्वधर्म-विषयक प्रेम अंध प्रेम न रहकर ज्ञानमय हो जाता है....सब धर्मों के प्रति समभाव आने पर ही हमारे दिव्यचक्षु खुल सकते हैं। धर्मान्धता और दिव्यदर्शन में उत्तर-दक्षिण जितना अन्तर है।"
(गाँधी-वाणी पृष्ठ १००-१०१)
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