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तीर्थंकर
ऐसा कोई भी कर्म का उदय नहीं है जो आत्मा को ग्रानन्द प्रदान करें, क्योंकि सभी कर्म का उदय आत्मस्वरूप से विपरीत स्वभाव वाला है । इस कथन के प्रकाश में यह बात सिद्ध होती है कि स्वभाव परिणति की उपलब्धि में बाधक तथा विभाव परिणति के कारण होने से सभी कर्म त्यागने योग्य हैं । सुवर्णवर्ण के सर्प द्वारा दंश प्राप्त व्यक्ति उसी प्रकार मृत्यु के मुख में प्रवेश करता है, जिस प्रकार श्याम सर्पराज के द्वारा काटा गया व्यक्ति भी प्राणों का त्याग करता है । इसलिए शुद्धोपयोगी ऋषिराज ऋषभदेव तीर्थंकर ने दिव्य उपदेश देना बन्द कर दिया है । जितना कहना था, सब कह चुके । अन्य जीवों के उपकार हेतु यदि भगवान लगे रहें, तो वे सिद्धि वधू के स्वामी नहीं बन सकेंगे, इसलिए अब भगवान पूर्ण निर्मलता सम्पादन के श्रेष्ठ उद्योग में संलग्न हैं ।
योग-निरोधकाल
अन्य तीर्थंकरों के योगनिरोध का समय एक माह पर्यंत कहा गया है, इतना विशेष है कि वर्धमान भगवान ने जीवन के दो दिन शेष रहने पर योगनिरोध आरंभ किया था । यही बात निर्वाण भक्ति में इस प्रकार कही गई है।
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आद्यश्चतुर्दशदिनविनिवृत्त-योगः षष्ठेन निष्ठितकृति जिनवर्धमानः !
शेषाविधूतघनकर्म निबद्ध पाशाः
मासेन ते यतिवरास्त्वभवन्दियोगाः ॥ २६ ॥
ऋषभनाथ भगवान ने मन, वचन, काय के निरोध का कार्य चौदह दिन पूर्व किया था तथा वर्धमान जिनने दो दिन पूर्व योगनिरोध किया । धनकर्म राशि के बंधन को दूर करने वाले बाईस तीर्थंकरों ने एक माह पूर्व मन, वचन, काय की बाह्य क्रिया का निरोध प्रारंभ किया था ।
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