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________________ तीर्थंकर [ २४७ आए विना न रहेगा । तीन लोक के नाथ खड़े रहें और उनके चरणों के आराधक जीव बैठे रहें ! ज्ञानार्णव में पिंडस्थ ध्यान के प्रकरण में सिंहासन पर पद्मासन से विराजमान जिनेन्द्रदेव के स्वरूप चितवन करने का कथनपाया है । अतः यह बात आगम तथा युक्ति के अनुकल है कि समवशरण में भगवान सिंहासन पर पद्मासन मुद्रा में से विराजमान रहते हैं । विहार में कायोत्सर्ग ग्रासन रहता है; उसके पश्चात् पद्मासन हो जाता है । आसन में परिवर्तन मानने में कोई बाधा नहीं प्रतीत होती। आदिनाथ भगवान की आयु चौरासी लाख पूर्व प्रमाण थी। उसमें बीस लाख पूर्व कुमारकाल के, त्रेसठ लाख पूर्व राज्यकाल के, एक हजार वर्ष तपश्चरण के तथा एक सहस्र वर्ष एवं चौदह दिन कम कम एक लाख वर्ष पूर्व विहार के थे । चौदह दिन योगनिरोधके थे। कैलाशगिरि पर प्रागमन ___ भगवान को सिद्धालय प्राप्त करने में जब चौदह दिन शेष रहे, तब वे प्रभु कैलाशगिरि पर आ गए। कैलाशपर्वत पर प्रभु पद्मासन से विराजमान हुए। विविध स्वप्न-दर्शन जिस दिन योग निरोधकर भगवान कैलाशगिरि (अष्टापद पर्वत) पर विराजमान हुए, उस दिन भरत चक्रवर्ती ने स्वप्न में देखा:-- तदा भरतराजेन्द्रो महामंदरभूधरं। प्राप्रारभारं व्यलोकिष्ट स्वप्ने दैर्येण संस्थितं ॥४७--३२२।। महा मंदराचल (सुमेरु पर्वत) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ प्राग्भार पृथ्वी (सिद्ध-लोक) तक पहुँच गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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