SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर [ २३७ अयथार्थ कहने का अतिसाहस करते हैं । यह समझना कि हमारे सिवाय अन्य सब अज्ञानी हैं, सत्पुरुषों के लिए योग्य बात नहीं है । अशोभन कार्य गणधरदेव, द्वादशाँगपाठी, श्रुतकेवली आदि श्रेष्ठ यतीन्द्र मंत्र, तंत्र विद्या के महान ज्ञाता रहे हैं; इसलिए किन्हीं साधुओं को अथवा अन्य समर्थ आत्माओं को मंत्रशास्त्र का अभ्यास करते देख जो उनकी निन्दा तथा अवर्णवादका कोई-कोई लोग पथ पकड़ा करते हैं, वह अप्रशस्त, अशोभन एवं अभद्रकार्य है । यदि यह विद्या एकान्त रूप से अकल्याणकारी होती तो सर्वज्ञ भगवान की दिव्यध्वनि में उसका अर्थ रूप से प्रतिपादन न होता और न उस पर परम वीतराग गणधरदेव सदृश साधुराज ग्रंथरूप में रचना करने का कष्ट करते अतः अज्ञानमूलक आक्षेप करने की प्रवृत्ति में परिवर्तन आवश्यक है। शरीर-शास्त्र का प्रतिपादन द्वादशमपूर्व प्राणावाय में अष्टाङ्ग आयुर्वेद, भूतिकर्म अर्थात् शरीर आदि की रक्षा के लिए किए गए भस्मलेपन, सूत्रबंधनादि कर्म, जाँगुलिप्रक्रम (विषविद्या) और प्राणायाम के भेद-प्रभेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। भगवान ने गृहस्थावस्था में भरत बाहुबलि आदि पुत्रों को उनकी नैसर्गिक रुचि, पात्रता आदि को ध्यान में रखकर भिन्न-भिन्न विषय के शास्त्रों की स्वयं शिक्षा दी थी। उससे प्रभु का ज्ञान के विषय में दृष्टिकोण स्पष्ट होता था। अब सर्वज्ञ ऋषभनाथ तीर्थंकर की दिव्यध्वनि में प्रतिपादित ज्ञानराशि का अनुमान उसके रहस्य के ज्ञापक द्वादशांग शास्त्र, जिसे जैन वेद भी कहते हैं, के द्वारा हो जाता है । महापुराण में कहा है, "श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशांगमकल्मषम्" (पर्व ३६-२२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy