________________
तीर्थंकर
२३४ ]
भद्रबाहुस्वामी हुए हैं। उनके शिष्य सम्राट् चन्द्रगुप्त थे, जिन्होंने दिगम्बर मुद्रा स्वीकार की थी। उनकी पावन स्मृति में मैसूर राज्य के अंतर्गत श्रमणवेलगोला स्थल में चन्द्रगिरि पर्वत शोभायमान हो रहा है ।
पूर्व युग का विज्ञान
एक बात और ध्यान देने की है, कि जो मुनि सर्वावधिज्ञान के धारक होते हैं, वे परमाणु तक का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं । आज का भौतिकशास्त्र जिसे अणु कहता है, वह जैनशास्त्रानुसार अनंत परमाणु पुज्ज स्वरूप है । परमाणु तो इन्द्रियों तथा यंत्रों के अगोचर रहता है । परमाणु का प्रत्यक्ष दर्शन करनेवाले दिगम्बर जैन महर्षियों को जगत् में अज्ञात अनन्त चमत्कारों का ज्ञान रहता है । वीतराग, आत्मदर्शी, मुमुक्षु, महर्षि रहने से उनके द्वारा उस विज्ञान का प्रायः उपयोग नहीं किया जाता था । श्रागम के प्रकाश से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के समय तक देश में ऐसे बड़े-बड़े दिगम्बर जैन मुनिराज थे, जिनके द्वारा अवगत भौतिक विद्या के रहस्य को यन्त्रों के आश्रय से चलने वाला आज का विज्ञान स्वप्न में भी नहीं जान सकता है । यह कथन अतिशयोक्ति नहीं है । श्रेष्ठ ज्ञान के चमत्कारों के दर्शनार्थ परिशुद्ध पवित्र संयमी जीवन आवश्यक है । मद्य, माँसादि पापप्रवृत्तियों से परिपूर्ण पुरुषों की पहुँच उस तत्व तक नहीं हो सकती है, जहाँ तक पूर्व के मुनीन्द्र पहुँच चुके थे । यथार्थ में ज्ञान तो समुद्र है । कूपमण्डूक की दृष्टिवाले उस ज्ञानसिंधु की क्या कल्पना कर सकते हैं ?
पूर्व-प्ररूपण
दृष्टिवाद के चतुर्थभेद पूर्वगत के उत्पाद, अग्रायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुप्रवाद, कल्याणवाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल तथा लोकबिन्दुसार ये चौदह भेद कहे गए हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org