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________________ तीर्थकर [ २३३ चूलिका में सिंह, घोड़ा और हरिण आदि के स्वरूप के आकाररूप से परिणमन करने के कारणरूप मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरण का, तथा चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म और लेनकर्म आदि के लक्षण का वर्णन है (सीह - हय- हरिणादि - रुवायारेण परिणमण -हेदु -मंत- तंततवच्छरणाणि चित्त - कट्ठ - लेप्प - लेणकम्मादि - लक्खणं च वण्णेदि पृ० ११३, धवलाटीका भाग १) । आकाशगता चूलिका द्वारा आकाश में गमन करने के कारण रूप मंत्र, तंत्र और तपश्चरण का वर्णन हुआ है। ( प्रायासगया आयासगमण - णिमित्त - मंत - तंततवच्छरणाणि वण्णेदि) इन पाँचों ही चूलिकाओं के पदों का जोड़ दश करोड़, उनचास लाख छियालीस हजार है। महत्वपूर्ण विचार ____ इस वर्णन को पढ़ते समय मुमुक्षु के मन में यह प्रश्न सहज उत्पन्न हो सकता है कि द्वादशाङ्ग वाणी में जलगमनादि के साधन मन्त्र-तन्त्रादि का वर्णन क्यों किया गया ? विचार करने पर इसका समाधान यह होगा, कि प्राचार्यों ने संक्षेपमति शिष्यों के लिए अल्प शब्दों में तत्व कहा है । द्वादशांग वाणी का सार प्राचार्य पूज्यपादस्वामी ने इन शब्दों में कहा है :-- 'जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्वसंग्रहः' जीव अन्य है तथा पुद्गल अन्य है; यह तत्व का सार है। विस्तार रुचिवाले महाज्ञानपिपासु तथा प्रतिभासम्पन्न शिष्यों के प्रतिबोध निमित्त विस्तृत रूप में वस्तु के स्वरूप का कथन किया गया है। भगवान वीतराग तथा सर्वज्ञ हैं। उनकी दिव्यध्वनि के द्वारा विश्व केसमस्त पदार्थों के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है, जैसे सूर्य के प्रकाश में समस्त पदार्थ दृष्टिगोचर हो जाते हैं । इस प्रकरण से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि आज जो भौतिक विज्ञान का विकास हो रहा है, इससे कई गुना अधिक ज्ञान महावीर भगवान के निर्वाण-समय के १६२ वर्ष पश्चात् तक रहा था । द्वादशाँग के ज्ञाता अंतिम श्रुतकेवली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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