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तीर्थकर था, “गणिदाभावादो" (पृष्ठ ७६) । गणधरदेव की उपलब्धि होने पर श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के प्रभात में वीर जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि खिरी थी। इससे भी कठिन परिस्थिति उस काल में थी, जब भगवान आदिनाथ ने तपश्चर्या द्वारा कैवल्य लक्ष्मी प्राप्त की थी। यदि लोग धर्मतत्व के ज्ञाता होते, तो मुनि अवस्था में भगवान को छह माह पर्यन्त आहार प्राप्ति के हेत क्यों फिरना पड़ता ? इस प्रकार की कठिन स्थिति मन में विविध शंकाओं को उत्पन्न करती है। किन्तु इसका समाधान सरल है ।
महापुराणकार कहते हैं कि भरत महाराज को धर्माधिकारी पुरुष से यह समाचार प्राप्त हुआ कि आदिनाथ भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है । उसी समय आयुधशाला के रक्षक से ज्ञात हुआ कि आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है तथा कंचुकी से ज्ञात हुआ कि पुत्र उत्पन्न हुअा है :--
धर्मस्थाद् गुरुकैवल्यं चक्रमायुधपालतः। गुरोः कैवल्यसंभूति सूति च सुतचक्रयोः ॥२४-२॥
भरतेश्वर ने पहले धर्म पुरुषार्थ की आराधना करना कल्याणदायी सोचा--"कार्येषु प्राग्विधेयं तद्धर्म्य श्रेयोनुबंधि यत्" (८) इससे भरत महाराज सपरिवार पुरिमतालपुर जाने को उद्यत हुए । वहाँ पहुँचकर भरत महाराज ने सुवर्णमय बीस हजार सीढ़ियों पर चढ़ कर शीघ्र ही समवशरण में प्रवेश किया। उन्होंने द्वारपाल देवों के द्वारा भीतर जाते हुए समवशरण के वैभव का अवलोकन कर परम आनंद प्राप्त किया। श्रीमंडप की शोभा देखी। वह रत्नमय स्तम्भों पर अवस्थित था। उसका ऊपरी भाग स्फटिकमणि निर्मित था । वास्तव में वह श्रीमंडप ही था।
पुण्यशाली महाराज भरत ने पद्मासन मुद्रामें विराजमान उन अंतर्यामी आदिनाथ प्रभु की प्रदक्षिणा की। श्रेष्ठ सामग्री से उन
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