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तीर्थकर
[ २१५ 'उत्तम' का अर्थ
___ मूलाचार में लिखा है कि ये अरहंत भगवान जगत में त्रिविध तम अर्थात् अंधकारों से विमुक्त हैं। इस सम्बन्ध की गाथा विशेष महत्वपूर्ण है :--
मिच्छत्त-वेदणीयं णाणावरणं चरित्तमोहं च। तिविहा तमाहु मुक्का तम्हा ते उत्तमा होति ॥५६५॥
ये चौबीस तीर्थंकर उत्तम कहे गए हैं क्योंकि ये मिथ्यात्व वेदनीय, ज्ञानावरण तथा चारित्र मोहनीय इन तीन प्रकार के अंधकारों से मुक्त हैं। संस्कृत टीकाकार वसनंदि सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लिखा है “त्रिविधं तमस्तस्मात् मुक्ता यतस्तस्मात्ते उत्तमाः प्रकृष्टा : भवंति ।" इसका भाव यह है कि अरहंत भगवान मिथ्यात्व अंधकार से रहित होने से सम्यक्त्व ज्योति से शोभायमान है । ज्ञानावरण के दूर होने से केवलज्ञान समलंकृत हैं। चारित्र मोह के अभाव में परमयथाख्यात चारित्र संयुक्त हैं। मिथ्यात्व, अज्ञान तथा असंयम रूप अंधकार के होते हुए यह जीव परमार्थ दृष्टि से उत्तम (उत् अर्थात् रहित+तम (अंधकार) अर्थात् रहित नहीं कहा जा सकता है। लोक में श्रेष्ठ पदार्थ को उत्तम कहते हैं । तत्व दृष्टि से मुमुक्षु जीव अरहंत भगवान को उत् तम अर्थात् उत्तम मानता है।
प्रशस्त राग
मोहनीय कर्म पाप प्रकृति है। उसका भेद रागभाव भी पापरूप मानना होगा, किन्तु वह रागभाव अरहंत भगवान के विषय म होता है, तो वह जीव को कुगतियों से बचाकर परम्परा से मोक्ष का कारण हो जाता है अतः मूलाचार में “अरहंतेसु य राम्रो पसत्थराओ''---अरहंतों में किया गया राग प्रशस्त राग अर्थात् शुभ राग कहा गया है। (देखो गाथा ७३, ७४ पडावश्यक अधिकार )।
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