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________________ तीर्थकर २१४ ] मेरी आत्मा का उद्धार करने वाले चारुदत्त मेरे साक्षात् गुरु हैं, क्योंकि 'दत्तः पंचनमस्कारो मरणे करुणावता' (२१--१५०)-- उन्होंने करुणापूर्वक मुझे मरण समय पर पंचनमस्कार मंत्र प्रदान किया था। जातोहं जिनधर्मेण सौधर्मो विबधोत्तमः। चारुदत्तो गुरुस्तेन प्रथमो नमितो मया ॥२१--१५१॥ जिनधर्म के प्रभाव से मैं सौधर्म स्वर्ग में महान देव हुआ । इस कारण मैंने अपने गुरु चारुदत्त को पहले प्रणाम किया । हरिवंशपुराण की यह शिक्षा चिरस्मरणीय है :-- अक्षरस्यापि चैकस्य पदार्थस्य पदस्य वा। दातारं विस्मरन् पापी कि पुनर्धर्म दशिनम् ॥१५६॥ एक अक्षर का अथवा एक पद का या उसके अर्थ के दाता को विस्मरण करनेवाला पापी है, तब फिर धर्म के उपदेष्टा को भूलने वाला महान पापी क्यों न होगा ? इस कथन के प्रकाश में अरहंत-भगवान का अनंत उपकार सर्वदा स्मरणीय है और उनके चरणयुगल सर्वप्रथम वंदनीय हैं। रत्नत्रय रूप त्रिशूल आचार्य वीरसेन ने अरहंत भगवान के सम्बन्ध में यह सुन्दर गाथा धवला टीका में उद्धृत की है :-- ति-रयण तिसूलधारिय-मोहंधासुर-कबंध-बिद-हरा। सिद्ध-सयलप्प-रूबा अरहंता दुग्णयकयंता ॥पृ० ४५, भाग १॥ जिन ने रत्नत्रय रूप त्रिशूल को धारण कर मोह रूपी अंधकासुर के कबंधवृन्द का हरण किया है और अपने परिपूर्ण आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है, वे मिथ्या पक्षों के विनाश करने वाले अरहंत भगवान हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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