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________________ तीर्थकर [ २११ दोनों पाठ भिन्न-भिन्न दृष्टियों से सम्यक् है । सूक्ष्म विचार से ज्ञात होगा, कि बारहवें गुणस्थान के अंत में भगवान अरि समूह का क्षय करने से अरिहंत हो गए। इसके अनन्तर सुरेन्द्रादि पाकर जब केवलज्ञान कल्याणक की पूजा करते हैं, तब अरिहंति पूयसक्कार' इस दृष्टि से उनको अर्हन्त कहेंगें । प्राकृतभाषा में उसका 'अरहंत' रूप पाया जाता है। प्राचीन उल्लेख ____ णमो अरिहंताणं' रूप पंचनमस्कार मंत्र का भूतवलि-पुष्पदंताचार्य के पहले सद्भाव था इसके प्रमाण उपलब्ध होते हैं। मूलाराधना नाम की भगवती आराधना पर रचित टीका में पृष्ठ २ पर यह महत्वपूर्ण उल्लेख पाया है, कि सामायिक आदि अङ्ग बाह्य आगम में, तथा लोक बिन्दुसार है अंत में जिनके, ऐसे चौदह पूर्व साहित्य के प्रारम्भ में गौतम गणधर ने ‘णमो अरहंताणं' इत्यादि रूप से पंचनमस्कार पाठ लिखा है । जब गणधरदेव रचित अंग तथा अंगबाह्य साहित्य में णमो अरहंताणं इत्यादि मङ्गल रूप से कहे गए हैं, तो फिर इनकी प्रचलित मान्यता निर्दोष रहती है, जिसमें यह पढ़ा जाता है “अनादिमूलमंत्रोयम्" । मूलाराधना टीका के ये शब्द ध्यान देने योग्य है “यद्ये वं सकलं श्रुतस्य सामयिकादेर्लोकबिन्दुसारान्तस्यादौ मंगलं कुर्वद्भिर्गणधरैः", "णमो अरहंताणमित्यादिना कथं पंचानां नमस्कारः कृतः ?" पज्जुवास का रूप बृहत्प्रतिक्रमण पाठ में दोष शुद्धि के लिए गौतम गणधर ने यह लिखा है "मूलगुणेसु उत्तरगुणेसु अइक्कमो जाव अरहंताणं भयवंताणं पज्जुवासं करेमि तावकायं (वोसिरामि) (पृ० १५१)।" टीकाकार पज्जुवास अर्थात् पyपासना का स्वरूप इस प्रकार कहते हैं कि ३२४ उच्छवासों द्वारा १०८ बार पंचनमस्कार मन्त्र का उच्चारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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