________________
२०४ ]
तीर्थंकर कर सकते हैं। जिसमें विचारशक्ति है, वह स्वस्थ मन तथा मस्तिष्क पूर्वक जिनेन्द्र की वाणी की विश्व के दर्शनों के साथ तुलना करके देख सकता है, कि जिनेन्द्र का कथन समन्त-भद्र है; सर्वागीण कल्याणपूर्ण है। उसमें पूर्णतया निर्विकारता है।
निर्विकार-मुद्रा
भगवान जिनेन्द्र की वीतराग मुद्रा का सूक्ष्मतया निरीक्षण करने पर हृदय स्वयमेव स्वीकार करता है, कि उसके द्वारा भगवान में राग, द्वेष, मोह, क्रोध, काम, लोभ, मद, मत्सर आदि विकारों का अभाव स्पष्ट सूचित होता है । क्रोध मानादि अंतविकारों के सद्भाव में उनके चिन्ह भृकुटी विकार, रक्तनेत्रता, शस्त्रादि धारण करना आदि देखे जाते हैं । कामिनी का सङ्ग परित्याग करने से कामादि विकारों का अभाव सूचित होता है । आभूषणादि का त्याग करने से हृदय की निर्मलता स्पष्ट होती है । अंतर्मुखी वृत्ति बताती है कि वे आत्मज्योति के दर्शन में निमग्न हैं । परम अहिंसा तथा श्रेष्ठ करुणा से हृदय समलंकृत है तथा समस्त विश्व के मित्र तल्य है। शत्र नाम की वस्तु उनके समक्ष नहीं है । शत्रुता का मूल कारण क्रोध का क्षय हो चुका है, इसलिए शस्त्रादि से कोई प्रयोजन नहीं है । स्वावलम्बी होने से उनने वस्त्रादि का त्याग कर दिया है।
इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति का गम्भीरता पूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण करने पर निष्पक्ष तथा सहृदय विचारक के मन में यह बात स्वयमेव अँच जायगी, कि सच्ची निर्विकार, निर्दोष तथा सात्विक भावों को प्रेरणा देने वाली जिनेन्द्र भगवान की मूर्ति है । भक्ति तथा धर्म के मोहवश कोई-कोई हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीसेवक, धन संग्रहादि पापों को बुरा मानते हुए भी भगवान में उनका सद्भाव स्वीकार करते हैं तथा उनको परमात्मा भी कहते हैं । न्याय की कसौटी पर यह विचार उचित नहीं प्रतीत होगा। विकारों का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org