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तीर्थंकर
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का स्वरूप मोह, भय तथा पक्षपात त्याग करके देखने पर विदित होगा, कि उक्त अष्टादश दोषों में से अनेक दोष उनमें पाए जाते हैं । जिनेन्द्रदेव में दोषों के प्रभाव का कारण भक्तामरस्तोत्र में बड़ी मनोज्ञ पद्धति द्वारा समझाया गया है । प्राचार्य मानतुङ्ग कहते हैं को दियोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषः ।
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त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ।
दोष रूपात्त - विविधाश्रयजात गर्वेः
स्वप्नान्तरेपि न कदाचिदपीक्षितोसि ॥। २७ ॥
हे मुनीन्द्र ! श्रन्यत्र अवकाश न मिलने से आपमें समस्त गुणों ने निवास किया है, इसमें विस्मय - आश्चर्य की कोई बात नहीं है । दोषों को जगत् में अनेक स्थान निवास योग्य मिल जाने से गर्व उत्पन्न हो गया है, अतः उन दोषों ने स्वप्न में भी ग्रापकी ग्रोर दृष्टि नहीं दी है ।
यहाँ कोई भिन्न सम्प्रदायवादी कह सकता है, कि जिनेन्द्र तीर्थंकर को ही क्यों निर्दोष कहा जाय ? हमारा जो प्राराध्य है वही निर्दोष है । ऐसी शंका का समाधान आचार्य समन्तभद्र की इस युक्तियुक्त कथन से होता है
स त्वमेवासि निर्दोष युक्शिास्त्राऽविरोधिवाक् ।
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हे वीर भगवान ! वह निर्दोषपना आप में ही है, क्योंकि आपकी वाणी युक्ति तथा आगम के अविरुद्ध है ।
इस पर पुनः प्रश्न होता है कि यह बात कैसे जानी जाय, कि आपका कथन युक्ति - शास्त्र के अविरोधी है ? इसका उत्तर पद्य के उत्तरार्ध में दिया है :-~~
प्रविरोधी यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते । । देवागम स्तोत्र ॥६ जो बात आपको इष्ट है, अभिमत है, वह प्रत्यक्ष अनुमानादि प्रमाणों द्वारा खण्डित नहीं होती है । वास्तव में स्याद्वादशासन एक अभेद्य किला है, जिस पर एकान्तवाद के गोले कोई भी असर नहीं
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