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भाषा और ध्वनि
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देवकृत अतिशयों में 'अर्ध मागधी भाषा' का उल्लेख आया है । दिव्यध्वनि का भगवान के प्रष्ट प्रातिहार्यों में कथन है । भाषा और ध्वनि शब्द रूप से समान हैं, किन्तु उनमें भिन्नता भी है । ध्वनि व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष की वाणी में सीमित नहीं होती । तीर्थंकर भगवान का उपदेश देव, मनुष्य, पशु आदि अपनी अपनी भाषाओं में समझते हैं, इसलिए प्रभु की देशना को भाषा - विशेष रूप न कह कर उसके अलौकिक प्रभाव के कारण दिव्य ध्वनि कहा गया है ।
सार्वार्ध - मागधी - भाषा
नन्दीश्वर भक्ति में अर्धमागधी भाषा को 'सावर्धिमागधीया भाषा' कहा है । सर्व के लिए हितकारी को सार्व कहा है ।
तीर्थंकर
मागध देव के सन्निधान होने पर जिनेन्द्र की वाणी को सम्पूर्ण जीव भली प्रकार ग्रहण करने में तथा उससे लाभ उठाने में समर्थ हो जाते हैं । आज वक्ता की वाणी को ध्वनिवाहक यन्त्र द्वारा दूरवर्ती श्रोताओं के पास पहुँचाया जाता है । इस यन्त्र की सहायता से वाणी समीप में अधिक उच्चस्वर से श्रवण गोचर होती है और कहीं उसका स्वर मन्द होता है । जिनेन्द्र की ध्वनि, प्रतीत होता है, मागध देवों के निमित से सभी जीवों को समान रूप से पूर्ण स्पष्ट और अत्यन्त मधुर सुनाई पड़ती है ।
जिनेन्द्र देव से उत्पन्न दिव्यध्वनि रूपी जलराशि को मागध देव रूपी सहायकों के द्वारा भिन्न-भिन्न जीवों के कर्ण प्रदेश के समीप सरलता पूर्वक पहुँचाया जाता है । जैसे सरोवर का जल नल ( जल
( १ ) तरु अशोक के निकट में सिंहासन छविदार | तीन छत्रसिर पर लसँ भामंडल पिछवार || दिव्यध्वनि मुखतें खिरं पुष्पवृष्टि सुर होम । ढोरं चौसठ चमर जख, बाजैं दुंदुभि जोय ॥
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