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________________ १८८ ] तीर्थकर (८) भामंडल के विषय में मानतुंग प्राचार्य ने लिखा है : शुभप्रभावलथ-भूरिविभा विभोस्ते, लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपंती। प्रोद्यद्दिवाकर-निरन्तरभूरिसंख्या। दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सौमसौम्या ॥३४॥ हे आदिनाथ भगवान् ! परब्रह्म-स्वरूप आप के शोभायमान प्रभामंडल की प्रचुरदीप्ति तीनों जगत् में प्रकाशमान पदार्थों के तेज को तिरस्कृत करती हुई उदीयमान सूर्यों की एकत्रित विपुल संख्या को तथा चंद्रमा के द्वारा सौम्य रात्रि के सौन्दर्य को भी अपनी तेज के द्वारा जीतती है । प्रशोक-तरु तिलोयपण्णत्ति में अष्ट महा प्रातिहार्यों का वर्णन करते हुए अशोक वृक्ष के विषय में यह विशेष कथन किया है : जेसि तरुणमूले उप्पण्णं जाण केवलं गाणं । उसहप्पहुदि-जिणाणं ते चिय असोयरुक्खत्ति ॥४-६१५॥ ऋषभादि तीर्थंकरों को जिन वृक्षों के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ वे ही उनके अशोक वृक्ष कहे गए हैं। चौबीस तीर्थंकरों के भिन्न-भिन्न अशोक वृक्ष हैं। ऋषभनाथ अजितनाथ आदि जिनेन्द्रों के क्रमशः निम्नलिखित अशोक वृक्ष कहे गए हैं : न्यग्रोद्य (वट) सप्तपर्ण (सप्तच्छद) शाल, सरल, प्रियंगु, प्रियंगु, शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेड़ा) धूली (मालिवृक्ष) पलाश, तेंदू, पाटल, पीपल, दधिपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, कंकेलि (अशोक) चंपक, वकुल, मेषशृंग, धव और शाल ये अशोकवृक्ष लटकती हुई मालाओं से युक्त और घंटादिक से रमणीय होते हुए पल्लव एवं पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं से शोभायमान होते हैं। (४-६१६-६१८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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