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________________ तीर्थंकर [ १८७ हे देव ! दैदीप्यमान किरणों के द्वारा अन्धकार पटल का नाश करने वाले, मेघ के समीपवर्ती सूर्य-बिंब के समान अत्यंत तेजयुक्त अशोक वृक्ष का प्राश्रय ग्रहण करने वाला आपका रूप अत्यंत शोभायमान होता है । सिंहासन ( ७ ) भक्तामर स्तोत्र में सिंहासन पर शोभायमान जिनभगवान के विषय में कहा है : -- सिंहासने मणिमयूख - शिखा विचित्रे | विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिम्बं वियद् - विलसदंशुलता-वितानम् । तुगोदयाद्रिशिरसीव सहस्त्ररश्मे ॥ २६ ॥ हे भगवन ! मणियों की किरण जाल से शोभायमान सिंहासन पर विराजमान सुवर्ण समान दैदीप्यमान प्रापका शरीर इस प्रकार सुन्दर प्रतीत होता है, जैसे उन्नत उदयाचल के शिखर पर नभोमंडल में शोभायमान किरणलता के विस्तार युक्त सूर्य का बिम्ब शोभायमान होता है । प्रभामंडल भगवान के प्रभामण्डल की अपूर्व महिमा कही गई है । जिनदेह - रुचामृताधि-शुचौ । सुर दानव मर्त्य - जनः ददृशुः ।। स्व-भवान्तर-सप्तकमात्तमुदो । जगतो बहु मंगलदर्पण के ।।२३ – ६७ ॥ महापुराण - अमृत के समुद्र सदृश निर्मल और जगत को अनेक मंगल रूप दर्पण के समान भगवान के देह के प्रभामंडल में सुर, असुर तथा मानव लोग अपने सात सात भव देखते थे । तीन भव भूतकाल के, तीन भव भविष्यत काल के और एक भव वर्तमान का, इस प्रकार सात भवों का दर्शन प्रभु के प्रभामंडल में होता था ।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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