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________________ १६० ] तीर्थकर बढ़ाता हुआ केवल ज्ञान रूपी पूर्ण चन्द्रमा संसार रूपी समुद्र को बढ़ा रहा था अर्थात आनंदित कर रहा था । पूजार्थ प्रस्थान पूर्वोक्त चिन्हों से इंद्र ने भगवान के केवलज्ञानोत्पत्ति का वृत्तांत अवगत कर परम हर्ष को प्राप्त किया । इंद्र अनेक देवों के साथ भगवान के केवलज्ञान की पूजा के लिए निकला । सौधर्मेन्द्र ने अपनी इन्द्राणी तथा ईशान इन्द्र के साथ-साथ, विक्रिया ऋद्धि के कारण नागदत्त प्रभियोग्य देव द्वारा निर्मित, ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो सर्वज्ञ ऋषभनाथ तीर्थंकरके दर्शनार्थ प्रस्थान किया । सबके आगे किल्विषक देव जोर-जोर से नगाड़ों के शब्द करते जाते थे । उनके पीछे इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक तथा प्रकीर्णक जाति के देवगण अपने अपने वाहनों पर आरुढ़ प्रभु के पास जा रहे थे । हो समवशरण रचना कुबेर ने इन्द्र की आज्ञा से भगवान की धर्मसभा अर्थात् समवशरण की अद्भुत रचना की थी । उस कार्य में देवताओं की अपूर्व कुशलता के साथ तीर्थंकर प्रकृति का निमित्त कारण भी सहायक था । वह सौन्दर्य, वैभव तथा श्रेष्ठकला का अद्भुत केन्द्र था । इन्द्र ने इन्द्रनीलमणियों से निर्मित गोल आकार वाले मनोज्ञ समवशरण को देखा । मंगलमय दर्पण प्राचार्य कहते हैं : *-- सुरेन्द्रनीलनिर्माणं समवृत्तं तदा बभौ । त्रिजगच्छी-मुखालोक-मंगलादर्श - विभ्रमम् ॥ २२-- ७८ ।। इन्द्र- नीलमणि निर्मित तथा चारों ओर से गोलाकार वह समवशरण ऐसा लगता था मानो त्रिलोक की लक्ष्मी के मुख दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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