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________________ १३० ] तीर्थकर महान फल हरिवंशपुराण में लिखा है कि देवताओं ने इक्षु धारा से स्पर्धा करते हुए आकाश से पृथ्वी तल पर रत्नों की वर्षा की थी। ग्रन्थकार के शब्द इस प्रकार हैं। श्रेयसा पात्रनिक्षिप्तपड्रेक्षुरसधारया। स्पर्धेयेव सुरैः स्पृष्टा वसुधाराऽपतद्दिवः ॥६-१६५॥ इस दान का आर्थिक दृष्टि से क्या मूल्य हो सकता है ? इक्षु रस यथार्थ में अमूल्य अर्थात बिना मूल्य का आज भी देखा जाता है । वही अमूल्य रस सचमुच में अमूल्य अर्थात् जिसके मूल्य की तुलना न की जा सके ऐसे लोकोत्तर पुण्य और गौरव का कारण बन गया । इस प्रसंग में पात्र, विधि, द्रव्य तथा दातारूप सामग्री चतुष्टय अपूर्व थे। त्रिलोकीनाथ को एक वर्ष एक महा तथा नौ दिन (३६६ दिन के उपवास पश्चात् कर्मभूमि के प्रारंभ में प्रथमबार तप के अनुकल सामग्री अर्पण करने का सौभाग्य श्रेयांस महाराज को दानतीर्थंकर पदवी का प्रदाता हो गया । वह अक्षयफल प्रदाता दिन अक्षय तृतीया के नाम से मंगल पर्व बन गया । दान-तीर्थंकर का गौरव चक्रवर्ती भरत महाराज ने उस दान के कारण कुमार श्रेयांस को महादानपति कहकर सन्मानित किया था। भरतेश्वर कहते हैं : त्वं दानतीर्थकृच्छ्रे यान त्वं महापुण्यभागसि ॥२०--१२८॥ हे श्रेयांस ! तुम दान तीर्थके प्रवर्तक दानतीर्थंकर हो । तुम महान पुण्यशाली हो। हरिवंशपुराण में कहा है : अभ्यचिते तपोवध्य धर्मतीर्थकरे गते । दामतीर्थकरं देवाः साभिषेकमपूजयन् ॥६-१९६॥ धर्मतीर्थकर वृषभदेव भगवान की पूजा के पश्चात् ततोवृद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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