________________
१०० 1
दृष्टि परिवर्तन
चुके ।
पिता
मोह निद्रा दूर होने से वे भली प्रकार जाग उन्हें कर्मचोर नहीं लूट सकते हैं । जगने के पूर्व में भगवान् के रूप में भरत, बाहुबली, ब्राम्ही, सुंदरी को देखते रहे । पितामह के रूप मरीचि आदि पौत्रों पर दृष्टि रखते थे । अयोध्या की जनता को प्रजापति होने से आत्मीय भाव देखते थे । अब उनकी संपूर्ण दृष्टि बदल गई । एक चैतन्य आत्मा के सिवाय सर्व पदार्थ पर रूप प्रतिभासमान हो गए । मोतिया बिन्दु वाले के नेत्र में जाला आने से वह अंध सदृश हो जाता है । जाला दूर होते ही प्रकाश प्राप्त होता है । अपना पराया पदार्थ स्पष्ट दिखने लगता है । ऐसा ही यहाँ हुआ ।
तीर्थंकर
नीलांजना को प्रतलम्बन बनाकर सुधी सुरराज ने भगवान् के नेत्रों को स्वच्छ करने में बड़ी चतुरता से काम लिया । भगवान् के जन्म होने पर उस इंद्र ने आनन्दित हो सहस्रनेत्र बनाए थे । याज भी सुरराज मोहजाल दूर होने से आध्यात्मिक सौन्दर्य समन्वित विरक्त आदिनाथ प्रभु की अपने ज्ञान नेत्रों द्वारा नीराजना करते हुएआरती उतारते हुए अपूर्व शान्ति तथा प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है । इसका कारण यह है कि इन्द्र महाराज की जिनेन्द्र में जो भक्ति थी, वह मोहान्धकार से मलिन नहीं थी । वह सम्यक्त्व रूप चिंतामणि रत्न के प्रकाश से दैदीप्यमान थी ।
लौकांतिकों द्वारा समर्थन
अब तक विरक्त तथा विषयों में अनासक्त रहने वाले देवर्षि रूप से माने जाने वाले लौकान्तिक देव अपने स्थान से ही जिनेन्द्र को प्रणाम करते थे । सुदर्शन मेरु के शिखर पर सारे विश्व को चकित करने वाले जिनेन्द्र भगवान का जन्माभिषेक हुआ । वहाँ चारों निकाय के देव विद्यमान थे, केवल इन विरक्त देवर्षियों का वहाँ अभाव था । ये वैराग्य के प्रेमी कोकिल सदृश थे, जिन्हें अपना मधुर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org