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________________ तीर्थकर [ ७३ उस समय उनका मनोहर शरीर, प्यारी बोली, मधुर निरीक्षण तथा मुस्कुराते हुए बोलना सभी संसार के प्रेम को प्राप्त कर रहे थे । वपुः कान्तं प्रिया वाणी मधुर तस्य वीक्षितम् । जगतः प्रोतिमातेनुः सस्मितं च प्रजल्पितम् ॥१४--१७६॥ पूर्व जन्म की तप: साधना और पुण्य के तीव्र उदयवश प्रभु में अगणित गुणों का मानो परस्पर स्पर्धावश अद्भुत विकास हो रहा था । जिस प्रकार उनका शरीर अप्रतिम सौन्दर्य का केन्द्र था और जिसके समक्ष देव देवेन्द्र प्रादि की दीप्ति फीकी लगती थी, उन भगवान का हृदय भी उसी प्रकार सुन्दरता तथा पवित्रता-परिपूर्ण था। अंतःबाह्य सौन्दर्य से शोभायमान भगवान की समस्त बातें विश्व को अवर्णनीय आनन्द तथा आश्चर्य को उत्पन्न करती थीं। विश्व-विद्या का ईश्वरत्व उनके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के साथ 'भव-प्रत्यय' नामका अवधिज्ञान भी जन्म से था । इस कारण उन्होंने समस्त विद्याओं को अपने आप प्राप्त कर लिया था। प्राचार्य जिनसेनस्वामी कहते हैं-- विश्वविद्येश्वरस्यास्य विद्याः परिणताः स्वयम् । ननु जन्मान्तराभ्यासः स्मृति पुष्णाति पुष्कलाम् ॥१४--१७६॥ भगवान समस्त विद्याओं के ईश्वर थे। इस कारण उनको सम्पूर्ण विद्याएँ स्वयमेव प्राप्त हो गई थीं। पूर्व जन्म का अभ्यास स्मरणशक्ति को अत्यन्त पोषण प्रदान करता है। तीर्थकर विश्व के गुरु हैं जिन बाल जिनेन्द्र के दर्शन मात्र से महाज्ञानी चारणऋद्धिधारी मुनीन्द्रों को गम्भीर ज्ञानलाभ हो, जो जन्म से मति, श्रुत, अवधिज्ञान समलंकृत हों, उन अलौकिक सामर्थ्य-सम्पन्न प्रभु को किसी गुरु के पास जाकर विद्याभ्यास करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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