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________________ ६२ ] तीर्थंकर महापुरुष मानकर उनमें असाधारण बातों को स्वीकार करने के स्थान में विविध मत - प्रवर्तकों के समान उनकी समस्त बातों की मान्यता तीर्थंकर के जीवन को पूर्ण स्वाभाविक रूपता प्रदान करती । चमत्कारों का स्वाभाविकता के साथ सामंजस्य नहीं बैठता । इस आशंका के समाधान हेतु हमारी दृष्टि कार्य-कारण भाव के विश्वमान्य तर्कसङ्गत सिद्धान्त की ओर जाना चाहिये । सुविकासपूर्ण स्थिति में तीर्थंकर रूप मनोज्ञ वृक्ष को देखकर जिनको आश्चर्य होता है, वे गम्भीरता पूर्वक यह भी विचार करें, कि इस वृक्ष के बीज - वपन के पूर्व से कितनी बुद्धिमत्ता, परिश्रम, विवेक और उद्योग का उपयोग किया गया है ? किस-किस प्रकार की श्रेष्ठ सामग्री जुटाई गई ? तब वह आश्चर्य आश्चर्यस्वरूप रहते हुए भी स्वाभाविकता समलंकृत प्रतीत होने लगता है । तीर्थंकर बनानेवाली अनेक भवों की अद्भुत तपः साधना, ज्ञानाराधना तथा स्वावलम्बनपूर्ण समस्त जीवनी पर गम्भीर दृष्टि डालने से अनेक प्रकार की शंकाओं का जाल उसी प्रकार दूर हो जाता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणमालिका के द्वारा अन्धकार का विनाश हो जाता है । जन-साधारण सदृश दुर्बलताओं तथा असमर्थताओं का केन्द्र तीर्थंकर को भी होना चाहिये, यह कामना उसी प्रकार विनोद तथा परिहास प्रवर्धक है, जैसे नक्षत्र मालिकाओं में अल्प दीप्ति तथा प्रकाश को देख यह इच्छा करना कि इसी प्रकार सूर्य की दीप्ति तथा प्रकाश होना चाहिये । श्रेष्ठ साधना के द्वारा जिस प्रकार के श्रेष्ठ फलों की उपलब्धियाँ होती हैं, उसका प्रत्यक्ष दर्शन तीर्थंकर भगवान के जीवन में सभी जीवों को हुआ करता है । इस विषय की यथार्थता को हृदयङ्गम करने के लिए समीक्षक का ध्यान तीर्थंकरत्व के लिए बीज स्वरूप षोडश भावनाओं की ओर जाना उचित है । कारण रूप भावनाओं की एक रूपता रहने से कार्यरूप में विकसित तीर्थंकर स्वरूप विशाल वृक्ष भी समानता समलंकृत होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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