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________________ श०१४ उ०४-५ प्र०५१ २३ २७ ३५६ ख- अनगार के मध्य में होकर गमन करने के हेतु असुर- यावत्-वैमानिक देव का भावित आत्मा अनगार के मध्य में होकर गमन करना विनय विचार २४- २६ चौवीस दण्डकों में विनय मध्यगति अल्पऋद्धिवाले देव का महधिक देव के मध्य में होकर गमन करना समान ऋद्धिवाले देव का समान ऋद्धिवाले देव में होकर गमन करना २९-३० शस्त्र प्रहार करने के पूर्व या पश्चात् देवगति २८ । पुद्गल नैरयिकों का पुद्गलानुभव चतुर्थ पुद्गल उद्देशक ३२-३३ अतीत, अनागत और वर्तमान में ३१ भगवती-सूची पुद्गल परिणमन ३४ अतीत, अनागत और वर्तमान में पुद्गल स्कंध का परिणमन अतीत, अनागत और वर्तमान में जीव का परिणमन ३५ ३६ पुद्गल कथंचित् शास्वत-अशास्वत ३७ परमाणु कथंचित् चरम - अचरम ३८ दो प्रकार के परिणाम पंचम अग्नि उद्देशक ३६-४२ चौबीस दण्डक के जीव अग्नि के मध्य में होकर गमन करते हैं ४३-४६ चौबीस दण्डक के जीवों को दश प्रकार के अनुभव देव वैय ५०-५१ महद्धिक देव का पर्वतोल्लंघन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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