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________________ भगवती-सूची ३२४ श०८ उ०६ प्र० २३१ २१६ २१२ उत्तम-श्रमण को अशुद्ध आहार देने से अधिक निर्जरा और अल्प पाप २१३ असंयत को शुद्ध अथवा अशुद्ध आहार देने से एकान्त पाप २१४-२१५ गृहस्थ ने जिस श्रमण के निमित्त आहार दिया है, वह श्रमण न मिले तो उस आहार को एकान्त स्थान में परठने का विधान दश श्रमणों के निमित्त दिये हुये हुए आहार की भी यही विधि है पात्र, गुच्छा, रजोहरण, चोलपट्ट, कंबल, दण्ड, संस्तारक आदि के सम्बन्ध में भी पूर्वोक्त विधि २१७-२२२ अाराधक निग्रंथ २२३ . आराधक निग्रंथी २२४ क- आराधक होने का हेतु ख- छिद्यमान रोम आदि छिन्न माने जाते हैं ग- दह्यमान तृण आदि दग्ध माने जाते हैं घ- प्रक्षिप्यमान वस्त्र प्रक्षिप्त माने जाते हैं ङ- रज्यमान वस्त्र रक्त माने जाते हैं प्रकीर्णक २२५ दीपक में ज्योति जलती है २२६ प्रज्वलित घर में ज्योति जलती है क्रिया विचार औदारिक शरीर सम्बन्धि क्रिया २२८ चौवीस दण्डक में औदारिक शरीर सम्बन्धि क्रिया २२६ औदारिक शरीर सम्बन्धि एक जीव द्वारा किया। २३० चौवीस दण्डक में औदारिक शरीर सम्बन्धि एक जीव द्वारा क्रिया २३१ औदारिक शरीर सम्बन्धि अनेक जीवों द्वारा क्रिया २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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