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________________ श०१ उ०५ प्र०१७५ ग- कर्म वेदन और परिणमन के द्रष्टा सर्वज्ञ घ- कृत कर्म का भोग किये बिना मुक्ति नहीं १५६-१५७ पुद्गल की त्रैकालिक स्थिति १५८ क- स्कंध ख- जीव १५-१६० १६१ १६२ १६३ 17 १७०-१७१ "" "„ २७२ "P Jain Education International " 21 छद्मस्थकी केवल संयम, संवर, ब्रह्मचर्य और समिति - गुप्ति के पालन से मुक्ति नहीं भगवती-सूची केवली की ही मुक्ति अंतकृत की मुक्ति प्रश्नोत्तर १५६ से १६२ तक प्रत्येक प्रश्नोत्तर में तीन काल के तीन-तीन विकल्प केवली पूर्ण सर्वज्ञ है पंचम पृथ्वी उद्देशक चौवीस दण्डकों के आवास १६४ सात पृथ्वियाँ ( सात नरक ) १६५ सात नरकों के आवास १६६ भवनवासी देवों के आवास १६७ पृथ्वीकायकों के आवास यावत्-ज्योतिषी देवों के आवास १६८ विमानावास १६६ चौवीस दण्डकों में स्थिति आदि दश स्थान रत्नप्रभा के नरकावासों में स्थिति स्थान जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में कषाय के २७ भांगे १७२-१७३ जघन्य या उत्कृष्ट अवगाहना वाले नैरयिकों में कषाय के २७ भांगे १७४ नैरयिकों में तीन शरीर १७५ तीन शरीर वाले नैरयिकों में कषाय के २७ भांगे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001931
Book TitleJainagama Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1966
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_index
File Size9 MB
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