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________________ ५१८ परि. ३ : कथाएं हुए। राजा प्रवचन सुनने गया। प्रवचन सुनकर वह संवेग को प्राप्त हुआ और भगवान् के पास प्रव्रजित हो गया। दीक्षित होकर वह गीतार्थ बन गया। ___ एक बार वह जिनकल्प साधना को स्वीकार कर सत्त्व आदि भावनाओं से स्वयं को भावित करने लगा। वह राजगह के श्मशान में प्रतिमा स्वीकार कर स्थित हो गया। भगवान महावीर राजगह में समवसत हुए। लोग भगवान् को वंदन करने आने-जाने लगे। क्षितिप्रतिष्ठित नगर के दो वणिक् वहां से गुजर रहे थे। मुनि प्रसन्नचन्द्र को देखकर एक वणिक् बोला- 'यह हमारा स्वामी राज्यलक्ष्मी को छोड़कर तप:श्री को प्राप्त हुआ है। अहो! यह धन्य है।' दूसरा वणिक् तत्काल बोला- 'इसकी कैसी धन्यता? अपने शक्तिहीन बालक को राज्य का भार सौंप कर यह स्वयं दीक्षित हो गया। वह बेचारा राज्य में हिस्सा मांगने वाले दायादों से पीड़ित हो रहा है। नगर का प्रायः विनाश हो गया है। कर्त्तव्यहीनता से इस राजा ने अनेक लोगों को कष्ट में डाल दिया है इसलिए इसको देखना भी नहीं चाहिए।' यह सुनकर ध्यानस्थ खड़े मुनि प्रसन्नचन्द्र कुपित हो गए। उन्होंने सोचा-'मेरे पुत्र का अपकार करने वाला कौन है? निश्चित ही अमुक व्यक्ति होना चाहिए। उससे मुझे क्या? मैं इस अवस्था में भी उसे मार सकता हूं।' मुनि मानस-संग्राम में लीन होकर रौद्रध्यान में चले गए। अब हाथी पर चढ़कर हाथी को और घोड़े पर चढ़कर घोड़े को मारने लगे। वे मन ही मन संग्राम करने लगे। उसी समय महाराज श्रेणिक भगवान् को वंदना करने उसी मार्ग से जा रहे थे। उन्होंने भी प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को प्रतिमा में स्थित देखा, वह मुनि को वंदना कर आगे बढ़ गए। मुनि ने उस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। श्रेणिक ने सोचा-'ये मुनि अभी शुक्लध्यान में आरूढ़ हैं। इस अवस्था में कालगत होने वाले की क्या गति होती है, यह मैं भगवान् से पूडूंगा।' श्रेणिक भगवान् के समवसरण में पहुचा और वंदना कर भगवान् से पूछा-- “भगवन्! मैंने प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को जिस ध्यानावस्था में वंदना की थी, उस अवस्था में यदि वे कालगत होते हैं तो उनका उपपात कहां होगा?' भगवान् ने कहा- 'सातवें नरक में।' तब श्रेणिक ने सोचा- 'यह कैसे?' मैं भगवान् से पुनः पूलूंगा। इतने में ही प्रसन्नचन्द्र राजर्षि के मानसिक संग्राम के प्रधाननायक और सहयोगी ने आकर कहा- 'हमारे असि, शक्ति, चक्र, कर्तनी आदि प्रमुख शस्त्रास्त्र समाप्त हो चुके हैं। यह सुनकर राजर्षि ने अपने शिरस्त्राण से शत्रुओं को मारने के लिए ज्योंहि सिर पर हाथ रखा, उन्हें होश आया। उन्होंने सोचा-'अरे! मेरा शिर तो लुंचित है।' उन्हें परम संवेग की प्राप्ति हुई और वे विशुद्ध परिणामों से आत्मा की निन्दा करने लगे। वे पुनः शुक्ल ध्यान में आरूढ़ हो गए। इतने में ही श्रेणिक ने पुनः भगवान् से पूछा-'भगवन् ! जिस ध्यान में अभी मुनि प्रसन्नचन्द्र आरूढ़ हैं, यदि उसमें उनकी मृत्यु हो जाए तो उनका उपपात कहां होगा?' भगवान् बोले-'अभी इस अवस्था में उनकी मृत्यु हो तो वे अनुत्तर विमान देवलोक में उत्पन्न होंगे।' श्रेणिक ने पूछा-'भगवन्! पहले आपने अन्यथा प्ररूपणा की अथवा मैंने अन्यथा समझा?' भगवान् बोले- 'मैंने पहले अन्यथा नहीं कहा और न ही तुमने अन्यथा समझा। श्रेणिक बोला- 'तब इतना अंतर क्यों और कैसे आया?' तब भगवान् ने श्रेणिक को सारा वृत्तान्त बताया। इतने में ही मुनि प्रसन्नचन्द्र के समीप देवदुन्दुभि जैसा दिव्य शब्द होने लगा। श्रेणिक ने भगवान् से पूछा-'भगवन् ! यह क्या?' भगवान् बोले-'विशुद्ध परिणामों में प्रवर्त्तमान मुनि प्रसन्नचन्द्र को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है अतः देवता उनकी महिमा कर रहे हैं।' आवनि. ६७६, हाटी. १ पृ. ३२५, मटी. प. ५८५, ५८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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