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________________ ५१६ परि. ३ : कथाएं साथ रहती थी। एक बार वह चोर राजप्रासाद में चोरी कर एक हार ले आया। दोनों भयभीत हुए और हार को कहीं छुपा दिया। एक बार उद्यानिका उत्सव आया। सभी गणिकाएं विभूषित होकर उसमें भाग लेने चलीं। उस गणिका ने सोचा, मैं सभी गणिकाओं से श्रेष्ठ बनं. इस दृष्टि से उसने उस दिन वह हार पहना। जिस रानी का वह हार था, वह भी उस महोत्सव में आई थी। उसने गणिका के गले में पहना हआ हार पहचान लिया। उसने राजा से कहा। राजा ने पूछा-'वह गणिका किसके साथ रहती है?' राजपुरुषों के कहने पर राजा ने चंडपिंगलक चोर का निग्रह कर उसे शूली पर चढ़ा दिया। गणिका ने सोचा, यह मेरे दोष के कारण मारा जा रहा है, इसलिए उसने उस चोर को नमस्कार मंत्र सुनाया और कहा- 'ऐसा निदान करो कि मैं इसी राजा के घर पुत्र रूप में उत्पन्न होऊं।' उसने प्राण निकलने से पूर्व यह निदान कर डाला। वह पट्टरानी के गर्भ में आया। समय पर महारानी ने पुत्र का प्रसव किया। वह गणिका श्राविका उस बालक की क्रीडनकधात्री बनी। उसने एक दिन चिंतन किया कि गर्भ का काल और मरण का काल एक हो सकता है अतः वह उस बालक को क्रीड़ा कराती हुई कहती-'चंडपिंगल! रो मत।' वह रोना बंद कर देता। अपना नाम सुनकर वह संबुद्ध हो गया। वह बड़ा हुआ। राजा के दिवंगत होने पर वह राजा बन गया। कालान्तर में वे दोनों प्रव्रजित हो गए। २१९. जिनदत्त श्रावक एवं हुंडिकयक्ष मथुरा नगरी में जिनदत्त श्रावक रहता था। वहां हुंडिक नामक चोर नगर में चोरी करता। नगर में उसका आतंक फैला हुआ था। एक बार वह पकड़ा गया। उसे शूली की सजा मिली। एक दिन श्रावक जिनदत्त उधर से निकल रहा था। चोर ने उससे कहा- 'श्रावक जी! तुम अनुकंपक हो, मुझे प्यास लगी है अतः पानी पिलाओ मैं मर रहा हूं।' श्रावक ने कहा- 'मैं पानी लाता हूं, तब तक तुम नमस्कार महामंत्र का जाप करो। यदि तुम भूल जाओगे तो मैं लाया हुआ पानी भी नहीं पिलाऊंगा।' चोर उस लालसा से नमस्कार महामंत्र का जाप करने लगा। इतने में ही श्रावक भी पानी लेकर आ गया। चोर ने सोचा, अब मैं पानी पीऊंगा, यह सोचते-सोचते तथा नमस्कार मंत्र का घोष करते-करते उसके प्राण निकल गए। वह यक्ष बना। राजपुरुषों ने आकर श्रावक का यह कहकर निग्रह कर लिया कि यह चोर को भोजन देने वाला है। राजा तक बात पहुंची। राजा ने कहा- 'इस श्रावक को भी शूली पर चढ़ा दो।' उसे शूली पर चढ़ाने ले जाया जा रहा था। यक्ष ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। उसने श्रावक को देखा और साथ ही साथ अपने शरीर को भी देखा । एक भारी शिला की विकुर्वणा कर नगर के बीच आकाश में आकर वह यक्ष बोला- 'श्रावक को मत ले जाओ। उसे क्षमा करो अन्यथा मैं सभी को चकनाचूर कर डालूंगा।' श्रावक को मुक्त कर दिया गया। हुंडिकयक्ष का आयतन निर्मित किया गया। २२०. द्रव्य प्रतिक्रमण (कुंभकार) एक कुंभकार के घर में मुनि ठहरे हुए थे। उनके साथ एक बाल मुनि था। वह कुंभकार के मिट्टी १. आवनि. ६४५, आवचू. १ पृ. ५९०, ५९१, हाटी. १ पृ. ३०२, ३०३, मटी. प. ५५५। २. आवनि. ६४५, आवचू. १ पृ. ५९१, हाटी. १ पृ. ३०३, मटी. प. ५५५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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