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________________ ५१० २०४. अमात्य - पुत्र ( वरधनु ) वरधनु अमात्यपुत्र था। अनेक प्रयोजनों पर उसने पारिणामिकी बुद्धि से सफलता प्राप्त की। जैसे उसने कुमार ब्रह्मदत्त को मुक्त करवाकर उसका पलायन करवाया आदि। परि. ३ : कथाएं २०५. अमात्यपुत्र' की परीक्षा एक मंत्री -पुत्र कार्पटिक राजकुमार के साथ घूमता था। एक बार उसे एक नैमित्तिक मिला। एक रात वे देवकुलिका में ठहरे हुए थे। वहां एक सियारिन चिल्ला रही थी । कुमार ने नैमित्तिक से पूछा- 'यह क्या कह रही है ?' नैमित्तिक बोला - 'यह कह रही है कि नदी के घाट पर पानी के प्रवाह से आया हुआ पुराना कलेवर पड़ा है। उसके कटिभाग में सौ पादांक (मुद्रा विशेष) बंधे हुए हैं। तुम पादांक ग्रहण कर लो और कलेवर मुझे दे दो। मैं उस ढके हुए कलेवर को प्राप्त नहीं कर सकती। कुमार के मन में कुतूहल जागा । वह उनको वहीं छोड़कर अकेला नदी के घाट पर गया। कुमार पादांक लेकर आ गया। सियारिन पुनः रोने लगी । कुमार ने पुनः नैमित्तिक से इसका कारण पूछा। नैमित्तिक बोला - 'यह व्यर्थ रो रही है ।' राजकुमार ने जब कारण पूछा तो नैमित्तिक बोला - 'यह कह रही है कि तुम्हें सौ पादांक मिल गए और मुझे कलेवर । ' यह सुनकर राजकुमार मौन हो गया। अमात्यपुत्र ने सोचा- 'मैं इसका पराक्रम देखूं कि इसने कायरता से पादांक ग्रहण किए हैं अथवा वीरता से ? यदि इसने कृपणता से पादांक ग्रहण किए हैं तो इसको राज्य नहीं मिलेगा, यह मेरा निर्णय है । प्रातःकाल अमात्यपुत्र बोला- 'तुम सब जाओ। मैं उदर शूल से पीड़ित हूं अतः चल नहीं सकता।' कुमार बोला- तुम्हें यहां छोड़कर जाना उचित नहीं है। किन्तु मुझे यहां कोई जान न ले इसलिए हम दोनों पास के गांव में चलते हैं। राजकुमार ने कुलपुत्र के घर ले जाकर उसे समर्पित कर दिया । पादांक शत देकर उसे पोषण करने का सारा मूल्य चुका दिया। मंत्रीपुत्र ने जान लिया कि इसने पराक्रम से पादांक प्राप्त किए हैं। मुझे कोई विशेष कार्य है इसलिए पेट दर्द होने पर भी तुम्हारे साथ चलता हूं, ऐसा कहकर वह भी कुमार के साथ चला गया। कुमार को राज्य की प्राप्ति हो गई। राजकुमार ने मंत्री -पुत्र को आजीविका का साधन और भोग-सामग्री दे दी। चाणक्य * कथा के लिए देखें निर्युक्तिपंचक परि. ६ कथा सं. २७ पृ. ५३० - ५३४ । २०६. स्थूलभद्र पिता शकडाल मारे जाने पर नंद ने स्थूलिभद्र से कहा - 'तुम अमात्य बन जाओ।' वह अशोकवनिका में जाकर चिंतन करने लगा - ' व्याक्षिप्त व्यक्तियों के लिए भोगों का क्या प्रयोजन ? मैंने १. आवनि ५८८ / २३, आवचू. १ पृ. ५६२, हाटी. १ पृ. २८८, मटी. प. ५३० विस्तार हेतु देखें नियुक्ति पंचक परि. ६ कथा सं. ५५, ५६, पृ. ५८० - ९६ । २. कुछ आचार्य अमात्यपुत्र में इस कथा का संकेत करते हैं। ३. आवनि ५८८ / २३, आवचू. १ पृ. ५६२, हाटी. १ पृ. २८८, २८९, मटी. प. ५३०, ५३१ । ४. आवनि ५८८ / २३, आवचू. १ पृ. ५६३-६६, हाटी १ पृ. २८९, २९०, मटी प. ५३१, ५३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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