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परि. ३ : कथाएं मंत्रियों ने निवेदन किया- 'राजन्! यही संसार की स्थिति है, इसमें आप क्या कर सकते हैं?' राजा बोला- 'जब तक रानी अपने शरीर की सार-संभाल नहीं करेगी तब तक मैं भी कुछ नहीं करूंगा।' मंत्रियों ने सोचा- 'राजा के मोह के आगे दूसरा कोई उपाय नहीं है।'
कुछ सोचकर मंत्रियों ने राजा से कहा- 'राजन् ! देवी स्वर्ग चली गयी है। आप जो कुछ भेजना चाहें वह वहीं भेज देवें। जब आपको देवी की शरीर-स्थिति का संवाद ज्ञात हो जाए तब आप भी अपने शरीर की सार-संभाल कर लेना।' राजा ने यह बात स्वीकार कर ली। मंत्री ने एक व्यक्ति को वहां भेजने का माया जाल रचा। वह व्यक्ति आकर राजा से बोला-'देवी ने अपने शरीर की सार-संभाल करके उसे सज्जित कर लिया है। इस प्रकार वह प्रतिदिन देवी के संवाद राजा को बताता रहा। समय बीतने लगा। देवी को भेजने के बहाने मोह से राजा उसके कपड़े तथा कटिसूत्र आदि चबाने लगा। एक व्यक्ति ने सोचा- 'मैं भी इन्हें खाऊं।' वह कटिसूत्र आदि खाता हुआ राजा के पास गया। राजा ने पूछा- 'तुम कहां से आए हो?' वह व्यक्ति बोला- 'स्वर्ग से।' राजा ने पूछा- 'क्या वहां तुमने देवी को देखा?' वह व्यक्ति बोला- 'देवी ने ही मुझे कटिसूत्र आदि लाने के लिए भेजा है।' राजा ने उसे कटिसूत्र आदि दिखाए। वह बोला- 'ये रानी की इच्छा के अनुकूल नहीं हैं।' राजा ने पूछा- 'तुम स्वर्ग कब जाओगे?' वह व्यक्ति बोला- 'कल जाऊंगा।' राजा ने कहा- 'कल तुमको सब आभूषण मिल जाएंगे।' राजा ने मंत्री को कटिसूत्र आदि शीघ्र संपादित करने को कहा। मंत्री ने सोचा-'हमारी योजना विनष्ट हो गई, इस प्रकार तो यह व्यक्ति सदा राजा को ठगता रहेगा। अब क्या उपाय किया जाए ,यह सोचकर वह विषण्ण हो गया। एक मंत्री ने कहा- 'तुम चिंता मत करो मैं समय पर सब ठीक कर दूंगा।' मंत्री ने कटिसूत्र आदि बनवाकर राजा से पूछा- 'राजन् ! यह देवी के पास कैसे जाएगा?' राजा ने पूछा- और दूसरे आदमी कैसे जाते हैं ?' मंत्री ने कहा-'हम जिनको भेजते हैं वे जल में या अग्नि में प्रवेश करके स्वर्ग पहुंचते हैं। स्वर्ग जाने का और कोई रास्ता नहीं है।' राजा ने कहा- 'इस व्यक्ति को भी इसी प्रकार स्वर्ग भेजो।' मंत्रियों ने उस व्यक्ति को वैसे ही जाने का आदेश दिया। यह सुनकर वह दुःखी हो गया। एक वाचाल धूर्त राजा के समक्ष जाकर उपहास करने लगा। धूर्त व्यंग्य से उस व्यक्ति को बोला- 'देवी को कह देना कि राजा का तुम्हारे ऊपर बहुत स्नेह है
और भी कभी कोई कार्य हो तो आदेश दे देना। वह अंट-संट बोलने लगा। वह व्यक्ति बोला-'राजन् ! मैं इसके समान धारा-प्रवाह बात करने में असमर्थ हूं अतः आप इसे भेजें, यह अच्छा रहेगा। राजा ने जब यह बात सुनी तो उस वाचाल धूर्त को भेजने का आदेश दे दिया और पहले वाले को मुक्त कर दिया। उसके पारिवारिक जन दुःखी होकर विलाप करने लगे-'हा देव! अब हम क्या करेंगे?' मंत्री ने कहा- 'अपने मुख को वश में करना चाहिए।' उसको तिरस्कृत करके मंत्री ने उसे मुक्त कर किया। उसके स्थान पर किसी अनाथ मृतक को जला दिया। २०३. क्षपक
एक तपस्वी अपने शिष्य के साथ भिक्षा के लिए घूम रहा था। तपस्वी के पैरों के नीचे आकर एक मेंढकी मर गई। सायं आलोचना के समय तपस्वी ने उसकी आलोचना नहीं की। शिष्य बोला- 'मेंढकी
१. आवनि. ५८८/२२, आवचू. १ पृ. ५६०, ५६१, हाटी. १ पृ. २८७, २८८, मटी. प. ५२९, ५३० ।
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