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परि. ३ : कथाएं सन्तानें थीं-पुष्पचूल और पुष्पचूला। दोनों भाई-बहिन परस्पर अनुरक्त हो गए और पति-पत्नी की भांति भोग भोगने लगे। यह देख राजा ने उन दोनों की शादी कर दी। रानी पुष्पवती विरक्त होकर प्रव्रजित हो गई। वह देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई। उसने सोचा, यदि ये दोनों इसी रूप में मृत्यु को प्राप्त होंगे तो निश्चित ही नरक या तिर्यञ्च में उत्पन्न होंगे। उन्हें दुर्गति से बचाने के लिए देवी ने स्वप्न में उनको नैरयिकों के दृश्य दिखाए। पुष्पचूला ने स्वप्न से भयभीत होकर किसी अन्य दार्शनिकों से नारकों के बारे में पूछा। पर वे इस बारे में कुछ नहीं बता सके। उस समय वहां आचार्य अन्निकापुत्र आए। उन्हें बुलाकर उसने नरक के विषय में पूछा। उन्होंने सूत्र बताते हुए नरक का वर्णन किया। पुष्पचूला बोली-'क्या आपने भी स्वप्न में नरक देखा है?' आचार्य बोले- 'सूत्र में हमने ऐसा नरक का वर्णन देखा है।' देवता ने पुनः स्वप्न में पुष्पचूला को देवलोक के दृश्य दिखाए। उसने आचार्य अन्निकापुत्र से देवलोक की बात कही। आचार्य ने सूत्र से उसके स्वप्न का समर्थन किया। वह विरक्त होकर प्रव्रजित हो गई। थोड़े समय में घातिकर्मों का क्षय कर उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया। यह पुष्पवती देवी की पारिणामिकी बुद्धि थी।' १९८. उदितोदय
____ पुरिमताल नगर में उदितोदय राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम श्रीकान्ता था। वे दोनों श्रावक थे। एक बार श्रीकान्ता ने एक परिव्राजिका को वाद में पराजित कर दिया। दासियों ने उसे विडंबित कर वहां से निकाल दिया। उसके मन में राजा और रानी के प्रति प्रद्वेष हो गया। वह प्रतिशोध लेने के लिए वाराणसी नगरी के राजा धर्मरुचि के यहां गई। उसने फलक पर महारानी श्रीकान्ता की प्रतिकृति चित्रित कर राजा को दिखाई। वह उसके प्रति आसक्त हो गया। उसने पुरिमताल नगर में राजा के पास दूत भेजा और श्रीकान्ता की मांग की। उदितोदय राजा ने दूत को प्रतिहत और अपमानित कर नगर से निकाल दिया। महाराजा धर्मरुचि तब पुरिमताल पर आक्रमण करने के लिए ससैन्य आ पहुंचा। उसने नगर को चारों ओर से घेर लिया। महाराजा उदितोदय ने सोचा- 'इतने बड़े जनक्षय से क्या प्रयोजन?' उसने बेले के तप द्वारा देव वैश्रमण की आराधना की। देव उपस्थित हुआ। राजा ने अपनी भावना उसके सामने रखी। देव ने राजा की भावना को जानकर राजा सहित पुरिमताल नगर का संहरण कर उसे दूसरे स्थान पर रख दिया। प्रात:काल नगर को न देख महाराज धर्मरुचि को खाली हाथ वाराणसी लौटना पड़ा। भीषण जनसंहार होने से बच गया। यह उदितोदय राजा की पारिणामिकी बुद्धि थी। १९९. साधु और नंदिषेण
नंदिषेण महाराज श्रेणिक का पुत्र था। उसका अनेक लावण्यवती कन्याओं के साथ विवाह हुआ। एक बार विरक्त होकर वह भगवान् महावीर के पास मुनि बन गया। उसका एक शिष्य संयम को छोड़कर गृहवास में जाने के लिए उत्सुक हो गया। नंदिषेण ने सोचा-'यदि भगवान् महावीर राजगृह में समवसृत हों तो अस्थिर मुनि रानियों को तथा अन्य अतिशायी वस्तुओं को देखकर स्थिर हो सकता है।' यह सोचकर नंदिषेण राजगृह गए। भगवान् भी वहां पधार गए। महाराज श्रेणिक अपने अन्त:पुर के साथ भगवान् के दर्शन
१. आवनि. ५८८/२२, आवचू. १ पृ. ५५९, हाटी. १ पृ. २८६, २८७, मटी. प. ५२८, ५२९ । २. आवनि. ५८८/२२, आवचू. १ पृ. ५५९, मटी. प. ५२९, हाटी. १ पृ. २८७।
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