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________________ आवश्यक निर्युक्त प्राचीन काल में पूर्ववर्ती आचार्यों की रचना को उत्तरवर्ती आचार्य आंशिक रूप से अपनी रचना के साथ बिना किसी नामोल्लेख के जोड़ लेते थे । अथवा कुछ पाठभेद के साथ अपनी रचना का अंग बना लेते थे। आवश्यक निर्युक्ति प्रारंभ से ही बहुचर्चित एवं विषयबहुल रचना रही है अतः अनेक आचार्यों ने इसकी गाथाओं को अपनी रचना में स्थान दिया है। जैसे आवश्यक निर्युक्ति की अस्वाध्याय संबंधी गाथाएं ओघनियुक्ति, निशीथभाष्य और व्यवहारभाष्य में मिलती हैं। इस पूरे प्रकरण को रचनाकार ने अपने ग्रंथ का अंग बना लिया है साथ ही गाथाओं में परिवर्तन एवं परिवर्धन भी किया है। कहीं-कहीं चरण एवं श्लोक का पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्ध भी परिवर्तित एवं आगे-पीछे मिलता हैं। संभव है वाचनाभेद, स्मृतिभ्रंश या पगत अशुद्धि के कारण यह अंतर आया हो। यह भी संभव है कि गाथाओं को अपने ग्रंथ का अंग बनाते समय संशोधन की दृष्टि से ग्रंथकार ने कुछ पाठभेद कर दिया हो। हमने पादटिप्पण में संवादी गाथाओं के केवल संदर्भस्थल दिए हैं। कहीं-कहीं महत्त्वपूर्ण पाठान्तरों का उल्लेख भी कर दिया है। सब पाठान्तरों को देने से ग्रंथ का कलेवर बढ़ जाता । पाठभेद के अनेक कारणों का प्रभाव आवश्यक निर्युक्ति की प्रतियों पर भी पड़ा है अतः कोई भी प्रति ऐसी नहीं मिली जिसके सभी पाठ दूसरी प्रति से मिलते हों । संपादन के समय पग-पग पर यह अनुभव हो रहा था कि यह कार्य अत्यन्त दुरूह है क्योंकि प्राचीन साहित्य को आज की संपादन- कसौटियों अनुरूप संपादित करना अत्यंत जटिल कार्य है। आज से हजार वर्ष पूर्व नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ने भी कुछ कठिनाइयों की चर्चा की थी के ५४ • सत् सम्प्रदाय (अर्थ-बोध की सम्यक् गुरु-परम्परा ) प्राप्त नहीं है। • सत् ऊह (अर्थ की आलोचनात्मक स्थिति) प्राप्त नहीं है । अनेक वाचनाएं हैं। • · पुस्तकें अशुद्ध हैं। कृतियां सूत्रात्मक होने के कारण बहुत गंभीर हैं । अर्थ विषयक मतभेद भी हैं। इन सब कठिनाइयों के बावजूद भी उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा और वे श्रुत की उपासना कर गए। उन्हीं को आदर्श मानकर हस्तप्रतियों से इस ग्रंथ के संपादन का कार्य प्रारंभ किया और यत्किंचित् सफलता हासिल की। संपादन के कुछ विमर्शनीय बिंदु विशेषावश्यक भाष्य की स्वोपज्ञ टीका २३१८ गाथा तक ही है। उसके बाद संपूर्ति रूप कोट्यार्यगणिकृत विवरण है। हमने एकरूपता की दृष्टि से पादटिप्पण में क्रमांक देने की दृष्टि से अंतिम गाथा तक 'को' का संकेत न करके 'स्वो' ही किया है। इसका एक कारण यह भी था कि विशेषावश्यक भाष्य पर कोट्याचार्यकृत एक टीका और है अत: भ्रम और विसंवादिता से बचने के लिए ऐसा किया। डॉ. टांटिया द्वारा संपादित कोट्याचार्य कृत टीका अधूरी संपादित है अतः हमने उनके द्वारा संपादित गाथाओं तक का ही संकेत किया है तथा 'गाथाओं का समीकरण' में भी उतने ही क्रमांकों का संकेत दिया है। कहीं-कहीं व्याख्या ग्रंथों में गाथाओं में क्रम-व्यत्यय भी है। उन गाथाओं का क्रम हमने विषय · • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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