________________
४५६
परि. ३ : कथाएं
कहा-'अमात्य तेतलिपुत्र के प्रभाव से ही तुम राजा बने हो अत: उसके साथ अच्छा संबंध रखना। राजा ने उसे सारे अधिकार दे दिए।'
पोट्टिला रूप देव ने तेतलिपुत्र को सम्बोधित किया लेकिन वह प्रतिबुद्ध नहीं हुआ। तब पोट्टिल देव ने राजा कनकध्वज को अमात्य से विमुख कर दिया। जहां-जहां अमात्य तेतलिपुत्र जाता या बैठता राजा उससे मुंह फेर लेता। वह भयभीत और उद्विग्न होकर घर आया। वहां रास्ते में भी किसी ने उसे सत्कार
और सम्मान नहीं दिया। घर में बाह्य व आन्तरिक परिषद् दास, नौकर तथा पुत्र-परिजन आदि भी उससे विमुख हो गए। किसी ने उसको आदर नहीं दिया। अपमानित होने पर वह विषण्ण हो गया। उसने आत्महत्या के लिए तालपुट विष खा लिया पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। गर्दन पर तीक्ष्ण तलवार चलाई, वह भी धारहीन हो गई। तत्पश्चात् वह रस्सी गले में बांधकर वृक्ष पर लटका लेकिन रस्सी बीच में ही टूट गई। भारी शिला को गले में बांधकर गहरे पानी में कूदा पर वहां भी पानी अल्प हो गया। तृणकुटीर में प्रवेश कर उसने आग लगाई लेकिन वह भी शान्त हो गयी।
परेशान होकर वह नगर से बाहर अटवी में चला गया। पीछे से हाथी उसे मारने दौड़ा। आगे एक गहरा गढ़ा था। अंधकार के कारण आगे-पीछे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मध्य में बाण गिरने लगे। भयभीत होकर वह बैठ गया और जोर से बोला- 'हा पोट्टिले! हा पोट्टिले! श्राविके! मैं कहां जाऊं? तुम मेरा निस्तार करो।' तब पोट्टिल देव ने पोट्टिला के रूप की विकुर्वणा की और बोला- 'जैसे रोगी के लिए भैषज, अभियुक्त के लिए विश्वास, श्रान्त के लिए वाहन, महाजल में पोत. मायावी के लिए रहस्य. उत्कंठित के लिए देशगमन, क्षुधित के लिए भोजन, पिपासित के लिए पानी और शोकातुर के लिए युवती त्राण है, वैसे ही भीत के लिए प्रव्रज्या त्राण है। शुभ परिणामों से तेतलिपुत्र को जातिस्मृति उत्पन्न हो गयी। उसने देखा कि पूर्वभव में वह जंबूद्वीप के महाविदेह में पुष्करावती की पुंडरीकिनी नगरी में महाबल नामक राजा था। स्थविरों के पास प्रव्रजित होकर सामायिक आदि अंग तथा १४ पूर्वो का अध्ययन कर बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर मासिक संलेखना में काल करके महाशुक्ल कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहां से वह तेतलिपुर नगर में अमात्य का पुत्र बना।
सोचते-सोचते तेतलिपुत्र संबुद्ध हो गया। प्रमदवन में अशोकवृक्ष के नीचे चिंतन करते हुए पूर्व पठित चौदह पूर्व स्वतः ज्ञात हो गए। कालान्तर में शुभ परिणामों से उसे केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। सन्निहित देवों ने कैवल्य-प्राप्ति का उत्सव मनाया। इस वृत्तान्त को सुनकर राजा कनकध्वज अपनी माता के साथ वहां आया और क्षमायाचना की। केवली तेतलिपुत्र से धर्म का उपदेश सुनकर राजा कनकध्वज श्रावक बन गया। आपद्ग्रस्त होने पर भी तेतलिपुत्र ने प्रत्याख्यान में समता रखी। ११९. द्रव्य नमस्कार का फल
बसंतपुर नगर में जितशत्रु राजा था। उसकी रानी का नाम धारिणी था। एक दिन राजा रानी के साथ
१. आगे से चूर्णि की कथा में कुछ अंतर है। २. आवनि. ५६५/१४, आवचू. १ पृ. ४९९-५०१, हाटी. १ पृ. २४९, मटी. प. ४८१, ४८२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org