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________________ ४५० परि. ३ : कथाएं विष का वेग बढ़ा। वह उनके मुंह पर प्रतीत होने लगा । राजा ने हड़बड़ाकर वैद्यों को बुलाया । वैद्यों ने आकर राजकुमारों को स्वर्ण पिलाया। दोनों स्वस्थ हो गए। राजा ने दासी को बुलाकर सारी बात पूछी। दासी बोली- 'किसी ने इस मोदक को नहीं देखा, केवल इन कुमारों की माता ने इसका स्पर्श किया था। राजा ने प्रियदर्शना को बुलाकर कहा - 'पापिनी ! मैंने राज्य देना चाहा, तब तुमने नहीं लिया। अब तुम मुझे मारकर राज्य लेने का प्रयत्न कर रही हो । तुम्हारे प्रयत्न से तो मैं बिना कुछ परलोक का संबल लिए ही परलोकगामी बन जाता।' यह सोच, दोनों भाइयों को राज्य देकर राजा सागरचन्द्र प्रव्रजित हो गया । एक बार उज्जयिनी से साधुओं का एक संघाटक वहां आया। प्रव्रजित राजा ने पूछा- 'वहां कोई उपद्रव तो नहीं है ?' उन्होंने कहा - 'वहां राजपुत्र और पुरोहितपुत्र दोनों साधुओं को बाधित करते हैं।' वह कुपित होकर उज्जयिनी गया। वहां के मुनियों ने उसका आदर-सत्कार किया। वे सांभोगिक मुनि थे अतः भिक्षावेला में उन्होंने कहा - 'सबके लिए भक्त पान ले आना ।' उसने कहा- 'मैं आत्मलब्धिक हूं। आप मुझे स्थापनाकुल बताएं।' उन्होंने एक शिष्य को साथ में भेजा । वह उसे पुरोहित का घर दिखाकर लौट आया। वह वहां अंदर जाकर ऊंचे शब्दों में धर्मलाभ देने लगा। यह सुनकर भीतर से स्त्रियां हाहाकर करती हुई बाहर आईं। मुनि जोर से बोला- 'क्या यह श्राविकाओं के लक्षण हैं?' इतने में ही राजपुत्र और पुरोहितपुत्र — दोनों ने बाहर जाकर रास्ता रोक दिया। दोनों बोले- 'भगवन् ! आप नृत्य करें ।' वह पात्रों को रखकर नाचने लगा। वे बजाना नहीं जानते थे। उन्होंने कहा- 'युद्ध करें।' वे दोनों एक साथ सामने आए। मुनि ने उनके मर्मस्थान पर प्रहार किया। उनकी अस्थियां ढीली हो गईं। उनको छोड़कर मुनि द्वार को खोलकर बाहर चला गया। राजा के पास शिकायत पहुंची। राजा ने साधुओं को बुलाया। उन्होंने कहा'हमारे यहां एक अतिथि मुनि आया था। हम नहीं जानते वह कहां है ?' उसकी खोज की गई। साधु उद्यान में था। राजा वहां गया और क्षमायाचना की । वह उन दोनों को मुक्त करना नहीं चाहता था । साधु बोला'यदि दोनों प्रव्रजित हों तो मुक्त कर सकता हूं।' दोनों को पूछा तो उन्होंने प्रव्रजित होना स्वीकार कर लिया। उनकी सारी अस्थियां अपने-अपने स्थान पर स्थित हो गईं। साधु ने लोच करके दोनों को प्रव्रजित कर लिया। राजपुत्र ने सोचा- 'मेरे पितृव्य ने ठीक ही किया है।' लेकिन पुरोहित पुत्र साधु से जुगुप्सा करने लगा। वह सोचता था कि मुनि ने कपट से मुझे प्रव्रजित किया है। वे दोनों मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। दोनों ने यह संकेत दिया कि जो देवलोक से पहले च्युत हो, वह दूसरे को प्रतिबोध दे । पुरोहित पुत्र का जीव देवलोक से च्युत होकर जुगुप्सा के कारण राजगृह नगर में एक मातंगी के गर्भ में आया। उस मातंगी की सखी एक सेठानी थी। उनके सखित्व का एक कारण था कि वह मातंगी मांस बेचती थी। एक दिन सेठानी ने उससे कहा- 'मांस बेचने के लिए अन्यत्र मत घूमना। सारा मांस मैं खरीद लूंगी।' मातंगी प्रतिदिन मांस लाती। दोनों में घनिष्ठ प्रीति हो गई । वह सेठानी निन्दु - मृतप्रसवा थी । उसने मृतपुत्री का प्रसव किया। तब मातंगी ने एकांत में सेठानी को अपना पुत्र दे दिया और उसकी मृतपुत्री को ले लिया। वह सेठानी मातंगी के पैरों में उस बालक को लुठाती और कहती कि यह तुम्हारे प्रभाव से जी सके। उसका नाम मेतार्य रखा गया। वह बढ़ने लगा। उसने अनेक कलाएं सीखीं। उसके मित्र देव ने उसे प्रतिबोध दिया परन्तु वह प्रतिबोधित नहीं हुआ । तब माता-पिता ने एक ही दिन में आठ इभ्य कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण कर दिया। नगर में वह शिविका में घूमने लगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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