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________________ आवश्यक नियुक्ति ४११ 'जो अष्टापद पर्वत पर चढ़कर धरणीगोचर चैत्यों की वंदना करेगा, वह उसी भव में सिद्ध हो जाएगा।' इस बात को देवता एक-दूसरे को कहते थे। यह बात सुनकर गौतमस्वामी ने सोचा-'अच्छा है, मैं भी अष्टापद पर्वत पर आरोहण करूं।' भगवान् ने गौतम के हृदयगत भावों को जान लिया और यह भी जान लिया कि वहां तापस प्रतिबुद्ध होंगे और इसका चित्त भी स्थिर हो जाएगा। वे बोले- 'गौतम! तुम अष्टापद के चैत्यों की वंदना करने जाओ।' यह सुनकर गौतम बहुत प्रसन्न हुए और अष्टापद की ओर चल पड़े। अष्टापद पर्वत पर तीन तापस कौंडिन्य, दत्त और शैवाल अपने पांच सौ-पांच सौ शिष्य परिवार के साथ रहते थे। उन्होंने जनश्रुति से गौतम की बात सुनी और सोचा- 'हम भी अष्टापद पर्वत पर आरोहण करें।' कौंडिन्य तापस और उसके पांच सौ शिष्य उपवास करते और पारणे में सचित्त कंद-मूल खाते थे। उन्होंने अष्टापद पर चढ़ने का प्रयास किया। वे पर्वत की प्रथम मेखला तक ही चढ़ पाए। दत्त तापस अपने शिष्य परिवार के साथ बेले-बेले की तपस्या करता था और पारणक में वृक्ष से नीचे गिरे सड़े, गले और पीले पत्तों को खाता था। उसने भी अष्टापद पर चढ़ने का प्रयत्न किया परन्तु वह दूसरी मेखला तक ही चढ़ पाया। शैवाल तापस अपने शिष्यों के साथ तेले-तले की तपस्या करता और पारणक में केवल म्लान शैवाल को ही खाता था। वह भी अष्टापद की तीसरी मेखला तक ही आरोहण कर पाया। ___ इधर भगवान् गौतमस्वामी पर्वत पर चढ़ रहे थे। उनका शरीर अग्नि, तडित् रेखा और दीप्त सूर्य की भांति तेजस्वी और सुंदर था। तापसों ने उन्हें आते देखकर व्यंग्य में कहा- 'देखो ! यह स्थूलशरीरी श्रमण अब अष्टापद पर्वत पर चढेगा। हम महातपस्वी हैं. हमारा शरीर दर्बल और शष्क है। हम भी पर्वत पर नहीं चढ़ पाए तो भला यह कैसे चढ़ पाएगा?' ____ भगवान् गौतम जंघाचारणलब्धि से संपन्न थे। वे मकड़ी के जाल के तंतुओं के सहारे भी ऊपर चढ़ सकते थे। तापसों ने देखा, गौतम आए और देखते-देखते अदृश्य हो गए। वे पर्वत पर चढ़ गए। तीनों तापस उनकी प्रशंसा करने लगे और वहीं खड़े-खड़े आश्चर्यचकित होकर देखने लगे। उन्होंने सोचा, जब ये पर्वत से नीचे उतरेंगे, तब हम सब इनका शिष्यत्व स्वीकार कर लेंगे। गौतमस्वामी वहां चैत्यों की वंदना कर उत्तर-पूर्व दिग्भाग में अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर रात बिताने के लिए आए और वहां स्थित हो गए। शक्र का लोकपाल वैश्रमण भी अष्टापद के चैत्यों की वंदना करने आया। चैत्यों को वंदना कर वह गौतमस्वामी को वंदना करने पहुंचा। गौतमस्वामी ने धर्मकथा करते हुए उसे अनगार के गुण बतलाते हुए कहा- 'मुनि अंत और प्रान्त आहार करने वाले होते हैं।' वैश्रमण ने सोचा-'ये भगवान् अनगारों के ऐसे गुण बता रहे हैं लेकिन इनके शरीर की जैसी सुकुमारता है, वैसी देवताओं में भी नहीं है।' गौतम ने वैश्रमण के मनोगत भाव जानकर पुंडरीक अध्ययन का प्ररूपण करते हुए बताया- 'पुंडरीकिनी नगरी में पुंडरीक राजा राज्य करता था। उसके युवराज का नाम कंडरीक था। युवराज कंडरीक दुर्बलता के कारण आर्त, दुःखार्त्त था। वह मर कर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ। पुंडरीक शरीर से हृष्ट-पुष्ट और बलवान् था। वह मरकर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुआ। इसलिए देवानुप्रिय! दुर्बलत्व या सबलत्व गति में अकारण है। इनमें ध्याननिग्रह ही परम प्रमाण है।' तब वैश्रमण ने सोचा'अहो! भगवान् गौतम ने मेरे हृदयगत भावों को जान लिया।' वह वैराग्य से भर गया और वंदना करके लौट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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