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________________ ३८० परि. ३ : कथाएं करोटक को छुपा रखा है। तुम जाओ और वहां खोदकर उसे निकाल लो।' वीरघोष वहां गया और निर्दिष्ट स्थान से करोटक निकालकर सिद्धार्थ की जय-जयकार करता हुआ आ गया। सिद्धार्थ ने पुनः उस परिषद् में पूछा - 'क्या यहां इन्द्रशर्मा नामक गृहपति उपस्थित है ?' लोगों ने कहा - 'हां, वह उपस्थित है । ' इन्द्रशर्मा स्वयं सामने आकर बोला- 'क्या आज्ञा है ? ' सिद्धार्थ बोला- 'क्या अमुक समय में तुम्हारा भेड़ खो गया था?' इन्द्रशर्मा ने स्वीकृति दी । तब सिद्धार्थ बोला- 'इस अच्छंदक ने उसे मारकर खा लिया है। उसकी हड्डियां बदरी वृक्ष के दक्षिण पार्श्व में उकुरडी के नीचे छिपाकर रखी हैं।' इन्दशर्मा अनेक लोगों को साथ लेकर वहां गया और हड्डियों का समूह देखा। सभी सिद्धार्थ की जय-जयकार करते हुए लौट आए। लोग सिद्धार्थ से और बात बताने का आग्रह करने लगे तब उसने कहा- 'और बातें इसकी भार्या बताएगी । ' अच्छंदक ने उस दिन पत्नी की पिटाई की थी अतः वह अच्छंदक के दोष देख रही थी। जब उसने सुना कि लोगों ने उसकी विडंबना की है और उसकी अंगुलियां काट दी गई हैं। तब उसने सोचा- 'लोग आएंगे तो मैं भी उसकी पोल खोल दूंगी।' लोग आए और अच्छंदक के विषय में पूछा। उसने कहा— 'उसका नाम भी मत लो। वह अपनी भगिनी का पति है, मुझे बिल्कुल नहीं चाहता।' लोगों ने उसकी अवहलेना करते हुए कहा - 'यह अच्छंदक पापी है, दुष्ट है।' अब गांव में उसे भिक्षा की प्राप्ति भी दुर्लभ हो गई। वह अन्यमनस्क हो गया। एक दिन वह भगवान् के पास आया और बोला- 'भंते! आपकी पूजा तो अन्यत्र भी होगी ही । मैं कहां जाऊं ?' तब भगवान् ने सोचा- 'यहां रहना अप्रीति का कारण है।' ऐसा सोचकर भगवान् वहां से चले गए। ६३. वस्त्र का परित्याग ( २ ) रास्ते में उत्तरवाचाला और दक्षिणवाचाला के बीच में दो नदियां बहती थीं- स्वर्णबालुका और रुप्यबालुका। भगवान् दक्षिणत्राचाला सन्निवेश से उत्तरवाचाला जा रहे थे। वहां स्वर्णबालुका नदी के किनारे कांटों में भगवान् का वस्त्र उलझ कर नीचे गिर पड़ा। भगवान् आगे बढ़ गए पर उन्होंने पीछे मुड़कर उस वस्त्र को देखा । तेरह महीनों तक सहजभाव से भगवान् ने उस वस्त्र को धारण किया फिर अचेल हो गए। उस ब्राह्मण ने वह देवदूष्य उठा लिया और जुलाहे को दे दिया। जोड़ने से वस्त्र का मूल्य एक लाख हो गया। दोनों ने पचास-पचास हजार ले लिए। ६४. दृष्टिविष सर्प का उपद्रव और उसको प्रतिबोध उत्तरवाचाला के रास्ते में कनकखल नाम का आश्रम था। वहां से दो मार्ग थे - ऋजु और वक्र । जो ऋजु मार्ग था, वह कनकखल आश्रम के मध्य से गुजरता था । वक्र मार्ग से आश्रमपद नहीं आता था । १. आवनि. २७९, २८१, आवचू. १ पृ. २७५-२७७, हाटी. १ पृ. १२९, १३०, मटी. प. २७०-२७२ । २. भगवान् ने पीछे मुड़कर क्यों देखा इस बारे में अनेक अभिमत हैं- कोई कहते हैं कि भगवान् ने ममत्व के कारण पीछे मुड़कर देखा। कोई कहते हैं कि वस्त्र स्थण्डिल भूमि में गिरा है अथवा अस्थण्डिल भूमि पर, यह देखने के लिए पीछे मुड़कर देखा। किसी का मानना है कि बिना कुछ विचार किए पीछे देखा तथा किसी के अभिमत से शिष्यों को वस्त्र एवं पात्र सुलभ होंगे इस दृष्टि से भगवान् ने पीछे मुड़कर देखा । ३. आवनि. २८१, आवचू. १ पृ. २७७, हाटी. १ पृ. १३०, मटी. प. २७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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