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भूमिका
द्वारगाथाएं नियुक्तिकार द्वारा रचित हैं। नियुक्तिकार बीच में सब द्वारों की व्याख्या न करके केवल एक गाथा के द्वारों की ही व्याख्या क्यों करते? इसलिए १३७/१-१६-ये सोलह गाथाएं स्पष्टतया भाष्यकार या अन्य आचार्यों द्वारा रचित होनी चाहिए।
इसी प्रकार १४१/१ वीं गाथा भाष्य में भाष्यगाथा के क्रम में है लेकिन नियुक्ति की तीनों टीकाओं में यह नियुक्ति गाथा के क्रम में है। इस गाथा के आधार पर भी १३७/१-१६-इन सोलह गाथाओं को
प्रक्षिप्त माना जा सकता है। १०. भाष्य गाथा को पहचानने का एक तरीका यह भी था कि जहां भाष्यकार सभी द्वारों की व्याख्या कर रहे
हैं, वहां एक द्वार की व्याख्या वाली गाथा नियुक्ति की कैसे हो सकती है? जैसे १४१/१ गाथा में शिल्प द्वार की व्याख्या है। जब आहार, कर्म आदि द्वारों की भाष्यकार ने विस्तृत व्याख्या की है तब केवल एक शिल्पद्वार की व्याख्या वाली गाथा नियुक्ति की कैसे हो सकती है? यद्यपि यह गाथा सभी
टीकाओं में निगा के क्रम में है लेकिन हमने इसे नियुक्ति के मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है। ११. भाष्य और चूर्णि में जिन गाथाओं की व्याख्या नहीं है, वे गाथाएं प्रायः बाद में प्रक्षिप्त हुई हैं। १४७/१
१०-ये दस गाथाएं भाष्य और चूर्णि में व्याख्यात नहीं हैं। ये व्याख्यात्मक एवं अतिरिक्त सी प्रतीत होती हैं क्योंकि 'संबोधन' और 'परित्याग' द्वार की व्याख्या गा. १४६, १४७ में हो चुकी है तथा तीसरे 'प्रत्येक'द्वार की व्याख्या आगे १४८ वीं गाथा में है अत: बीच की ये १० गाथाएं विषय को स्पष्ट करने के लिए बाद में जोड़ दी गयी हैं।
अनेक स्थलों पर चूर्णि में अव्याख्यात एवं अनिर्दिष्ट गाथा को भी चालू विषय की क्रमबद्धता के आधार पर नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है, जैसे-गा. १५१-१५७-ये सात गाथाएं चूर्णि में
व्याख्यात नहीं हैं लेकिन हमने इनको नियुक्ति के क्रमांक में रखा है। १२. जहां नियुक्तिकार ने किसी द्वार की संक्षेप में व्याख्या कर दी है, वहां उसी द्वार की यदि विस्तृत व्याख्या
करने वाली गाथाएं आई हैं तो वे स्पष्टतया भाष्य गाथाएं हैं। जैसे गा. १६४, १६५ में 'उप्पया नाण'द्वार की संक्षिप्त व्याख्या आ गयी है। फिर १६३/१-१२ तक की बारह गाथाओं में कौन से मास और किस तिथि में केवलज्ञान उत्पन्न हआ. इसका वर्णन है। ये गाथाएं महेटी और कोटी में भी निर्यक्तिगाथा के क्रम में नहीं हैं अतः स्पष्टतया भाष्य की होनी चाहिए। इसी प्रकार १८६/१-२५ इन पच्चीस गाथाओं में 'पर्याय' द्वार की व्याख्या है। पर्यायद्वार की व्याख्या नियुक्तिकार १८२-८६-इन पांच
गाथाओं में कर चुके हैं। भाष्य में भी ये गाथाएं निगा के क्रम में नहीं हैं। १३. जिन गाथाओं के बारे में संदेहास्पद स्थिति थी, उनके बारे में व्याख्यात्मक होने या बाद में जोड़ने का
पादटिप्पण में निर्देश दे दिया है लेकिन उन्हें मूल क्रमांक में जोड़ा है। जैसे २००-२०२ तक की तीन गाथाएं
व्याख्यात्मक प्रतीत हुईं लेकिन संदेहास्पद होने के कारण उनको नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है। १४. कहीं-कहीं चरण की पुनरावृत्ति के आधार पर भी गाथाओं का निर्णय किया है। जैसे २०७ वी गाथा
का चरण उप्पण्णम्मि अणंते २०७/१ गाथा में पुनरावृत्त हुआ है। सामान्यतः कोई भी रचनाकार इस प्रकार की पुनरावृत्ति नहीं करते। ग्रंथ के व्याख्याकार अवश्य व्याख्या के समय मूल ग्रंथ के चरण या
१. विशेष विस्तार हेतु देखें गाथा १४१/१ का टिप्पण।
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