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________________ ३३२ परि. ३ : कथाएं है अत: उसे उत्तेजित करना चाहिए। यह सोचकर चित्रकार ने एक फलक पर मृगावती का सुन्दर चित्र बनाया और उसे महाराजा प्रद्योत को दिखाया। प्रद्योत ने पूछा-'यह किसका चित्र है?' चित्रकार ने पूरी बात बताई। महाराजा प्रद्योत ने दूत को भेजकर शतानीक से मृगावती की मांग करते हुए कहा- 'यदि तुम मृगावती को नहीं सौंपोगे तो मैं तुम्हारे राज्य पर आक्रमण कर दूंगा।' दूत कौशाम्बी गया और महाराजा शतानीक को प्रद्योत की बात कही। शतानीक ने दूत का तिरस्कार कर, उसे फटकार कर निकाल दिया। दूत प्रद्योत के पास आया। सारी बात सुनकर प्रद्योत अत्यन्त कुपित हो गया और उसने अपने सैन्यबल के साथ कौशाम्बी की ओर प्रयाण कर दिया। महाराजा शतानीक का सैन्यबल कम था। उसने जब आक्रमण की बात सुनी तो वह अतिसार के रोग से ग्रस्त हो गया और उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तब महारानी मृगावती ने सोचा- 'मेरा पुत्र अभी बालक है। आक्रान्ता महाराजा प्रद्योत इसको मार न डाले। यह अभी उसका सामना करने में समर्थ नहीं है। मृगावती ने तब दूत भेजकर महाराजा प्रद्योत से कहलवाया- 'मेरा कुमार बालक है। हमारे चले जाने पर कोई सामन्त राजा आक्रमण कर इस नगर को बरबाद कर देगा।' प्रद्योत ने कहलवाया- 'मेरे रहते कौन राजा इस पर आक्रमण कर पाएगा?' मृगावती ने कहलाया- 'सिरहाने सर्प है और सौ योजन की दूरी पर विषवैद्य हो तो वह क्या कर पायेगा? इसलिए यह आवश्यक है कि पहले नगरी को मजबूत बनाया जाए।' प्रद्योत बोला-‘ऐसा ही करवा दूंगा।' मृगावती ने कहा- 'उज्जयिनी की ईंटें बहुत मजबूत होती हैं, उनसे परकोटा बनवाओ। प्रद्योत ने स्वीकार कर लिया। चौदह राजा उसके अधीनस्थ थे। उनकी सेनाओं को इस कार्य के लिए नियुक्त कर दिया और एक-एक पुरुष की परंपरा से उज्जयिनी की ईंटें कौशाम्बी पहंच गईं। उन ईंटों का परकोटा कर नगर को सुदृढ़ बना डाला। फिर मृगावती ने प्रद्योत से कहा- 'अब नगरी को धन से समृद्ध करो।' प्रद्योत ने वैसा ही किया। अब कौशाम्बी आक्रमण का प्रतिरोध करने में सक्षम हो गई। तब मृगावती ने प्रद्योत की मांग को ठकुराते हुए सोचा-'वे सभी ग्राम, नगर, सन्निवेश आदि धन्य हैं, जहां भगवान् महावीर विहरण करते हैं। यदि भगवान् यहां पधारें तो मैं प्रवजित हो जाऊंगी।' भगवान् वहां समवसृत हुए। सारे वैर उपशान्त हो गए। भगवान् का धर्मोपदेश चल रहा था। एक व्यक्ति ने भगवान् को सर्वज्ञ जानकर मन ही मन प्रच्छन्न रूप से एक प्रश्न पूछा। भगवान् ने जान लिया। वे बोले- 'देवानुप्रिय! स्पष्टरूप से सबके सामने पूछो, अन्यान्य लोग भी इस प्रश्न को सुनकर संबोध प्राप्त करेंगे।' तब उस व्यक्ति ने पूछा-जा सा सा सा? भगवान् ने प्रश्न स्वीकार कर लिया। गौतमस्वामी ने तब पूछा-'भगवन् ! इस व्यक्ति ने जो जा सा सा सा कहा, इसका तात्पर्य क्या है?' तब भगवान् ने उसकी 'उत्थानपर्यायनिका' का पूरा कथन करते हुए कहा चंपा नगरी में एक स्वर्णकार रहता था। वह स्त्रीलोलुप था। वह पांच-पांच सौ स्वर्णमुद्राएं देकर सुन्दर कन्या से विवाह कर लेता था। इस प्रकार उसने पांच सौ कन्याओं के साथ विवाह कर लिया। उसने प्रत्येक के लिए तिलक प्रमुख चौदह-चौदह स्वर्णालंकार बनवाए। जिस दिन जिस कन्या के साथ वह भोग भोगता उसको वे अलंकार देता, शेष काल में नहीं। वह बहुत शंकालु था। घर को कभी खाली नहीं छोड़ता था और दूसरों को घर में आने नहीं देता था। एक बार एक मित्र ने उसको भोज का निमंत्रण दिया। वह मित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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