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________________ २६० आवश्यक नियुक्ति तथ्यपूर्ण गुणों के साधक हैं, सदा मोक्ष के लिए उद्यमशील हैं, उन मुनियों को नमस्कार है। ६३४. संयम-पालन करने वाले मुझ असहाय की वे सहायता करते हैं, इस कारण से मैं सब साधुओं को नमस्कार करता हूं। ६३५. साधुओं को भावनापूर्वक किया गया नमस्कार जीव को सहस्रभवों से मुक्त कर देता है। वह नमस्कार उसके बोधिलाभ के लिए होता है। ६३६. भवक्षय करने वाले धन्य व्यक्तियों के हृदय को न छोड़ता हुआ यह ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' सर्व साधुओं को नमस्कार उनके विस्रोतसिका का वारक होता है। ६३७. इस प्रकार साधु नमस्कार महान् अर्थ वाला वर्णित है। मृत्युकाल के निकट होने पर इसका स्मरण बार-बार और अनवरत किया जाता है। ६३८. यह साधु नमस्कार सभी पापों का प्रणाशक तथा सभी मंगलों में पांचवां मंगल है। ६३८/१. यह पंच परमेष्टी का नमस्कार सब पापों का प्रणाशक है तथा सभी मंगलों में प्रधान मंगल है। ६३९. (सूत्र के दो ही प्रकार हैं-संक्षेप या विस्तार।) यह नमस्कार सूत्र न संक्षिप्त है और न विस्तृत । संक्षेप में हो तो दो प्रकार का नमस्कार ही होना चाहिए-सिद्धों और साधुओं को। विस्तार के अनेक प्रकार हो सकते हैं इसलिए पांच प्रकार का नमस्कार युक्त नहीं है।' ६४०. अर्हत्, आचार्य आदि नियमत: साधु हैं। साधु में अर्हत् की भजना है इसलिए पांच प्रकार का नमस्कार है। नमस्कार की अर्हता का हेतु इन पंच पदों में निहित है। ६४१. यह नमस्कार पद न पूर्वानुपूर्वी क्रम से है और न पश्चानुपूर्वी क्रम से। पूर्वानुपूर्वी क्रम से सिद्ध प्रथम होंगे और पश्चानुपूर्वी क्रम से साधु आदि में होंगे। ६४२. अर्हद् के उपदेश से सिद्धों की अवगति होती है इसलिए अर्हद् को प्रथम नमस्कार किया जाता है। कोई भी व्यक्ति पहले परिषद् को नमस्कार कर फिर राजा को नमस्कार नहीं करता। ६४३. इन सबको नमस्कार करने का प्रयोजन कर्मक्षय तथा मंगल की उपलब्धि है। इससे इहलौकिक और पारलौकिक-दोनों प्रकार के फल प्राप्त होते हैं। इनके दृष्टान्त ये हैं। १. परिनिर्वृत अर्हतों का सिद्ध पद में तथा शेष पदों का साधु के पद में समाहार हो जाता है (आवहाटी. १ पृ. ३००)। २. देखें गाथा ५८१ । ३. टीकाकार हरिभद्र ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि आचार्य के उपदेश से अर्हतों की अवगति मिलती है तब सर्वप्रथम आचार्यों को नमस्कार क्यों नहीं किया गया? इसके समाधान में स्वयं टीकाकार कहते हैं कि तुल्य बल वालों के क्रम का विचार श्रेयस्कर है। शक्ति-सम्पन्नता और कृतकृत्यता की दृष्टि से अर्हत् और सिद्ध प्राय: समान ही हैं। दोनों परम नायक हैं। आचार्य उनकी परिषद् के समान हैं। कोई भी व्यक्ति परिषद् को प्रणाम कर राजा को प्रणाम नहीं करता (आवहाटी. १ पृ. ३०१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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