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आवश्यक निर्युक्ति
३७७. जरा और मरण से विप्रमुक्त जिनेश्वर देव द्वारा अग्निभूति का संशय मिट जाने पर वह अपने ५०० शिष्यों के साथ प्रव्रजित होकर श्रमण बन गया ।
३७८. अग्निभूति को प्रव्रजित सुनकर तीसरा गणधर वायुभूति समवसरण में भगवान् के पास आया। उसने सोचा, मैं जाऊं, भगवान् को वंदना करूं और वंदना कर भगवान् की पर्युपासना करूं ।
३७९,३९०. जन्म, जरा और मृत्यु से विप्रमुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जिनेश्वर महावीर ने वायुभूति को नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा - 'वायुभूति ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि जो जीव है, वही शरीर है और जो शरीर है, वही जीव है । तुम इस विषय में किसी से कुछ पूछते भी नहीं । तुम वेद- पदों के अर्थ को नहीं जानते । सुनो, उनका अर्थ यह है । '
३८१. जरा और मरण से विप्रमुक्त जिनेश्वर देव द्वारा वायुभूति का संशय मिट जाने पर वह अपने ५०० शिष्यों के साथ प्रव्रजित होकर श्रमण बन गया ।
३८२. इन्द्रभूति आदि को प्रव्रजित सुनकर व्यक्त जिनेश्वर देव के पास आया। उसने सोचा, मैं जाऊं, वंदना करूं और वंदना कर भगवान् की पर्युपासना करूं।
३८३,३८४. जन्म, जरा और मृत्यु से विप्रमुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जिनेश्वर ने व्यक्त को नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा- 'व्यक्त ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि पांच भूतों का अस्तित्व है या नहीं ? तुम वेद-पदों का अर्थ नहीं जानते। सुनो, उनका अर्थ यह है । '
३८५. जरा और मरण से विप्रमुक्त जिनेश्वर देव द्वारा व्यक्त का संशय मिट जाने पर वह अपने ५०० शिष्यों के साथ प्रव्रजित होकर श्रमण बन गया ।
३८६. उन सबको प्रव्रजित सुनकर सुधर्मा जिनेश्वर देव के पास आया। उसने सोचा, मैं जाऊं, वंदना करूं और वंदना कर भगवान् की पर्युपासना करूं।
३८७,३८८. जन्म, जरा और मृत्यु से विप्रमुक्त, सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी जिनेश्वर ने सुधर्मा को नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा - ' -'सुधर्मा ! क्या तुम यह मानते हो कि इहभव में जो जैसा है, परभव में भी वह वैसा ही होगा? तुम वेद-पदों का अर्थ नहीं जानते । सुनो, उनका अर्थ यह है । '
३८९. जरा और मरण से विप्रमुक्त जिनेश्वर देव द्वारा सुधर्मा का संशय मिट जाने पर वह अपने ५०० शिष्यों के साथ प्रव्रजित होकर श्रमण बन गया ।
३९०. उन सबको प्रव्रजित सुनकर मंडित जिनेश्वर देव के पास आया। उसने सोचा- मैं जाऊं, वंदना करूं और वंदना कर भगवान् की पर्युपासना करूं ।
३९१,३९२. जन्म, जरा और मृत्यु से विप्रमुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जिनेश्वर ने मंडित को नाम और गोत्र से संबोधित कर कहा—‘मंडित ! तुम्हारे मन में यह संशय है कि बंध-मोक्ष हैं या नहीं।' तुम वेद-पदों के अर्थ नहीं जानते। सुनो, उनका अर्थ यह है ।
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