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आवश्यक नियुक्ति ३६२/३५. उस बचे हुए आधे भाग का आधा भाग राजा का होता है। शेष भाग सामान्य पुरुषों का होता है। उस बलि का एक कण भी शिर पर प्रक्षिप्त करने से रोग उपशान्त हो जाते हैं तथा छह महीनों तक कोई अन्य रोग नहीं होता। ३६२/३६. भगवान् जब धर्मदेशना से उपरत हो जाते हैं, तब दूसरी पौरुषी में गणधर धर्मदेशना प्रारंभ करते हैं। इससे ये चार गुण निष्पन्न होते हैं१. भगवान् को परिश्रम से विश्राम मिलता है। २. शिष्यों के गुणों की प्रख्यापना होती है। ३. श्रोताओं को उभयत: विश्वास होता है-वे जान जाते हैं कि जैसा भगवान् ने कहा, वैसा ही गणधर कह
रहे हैं। ४. शिष्य और आचार्य की शालीन परम्परा का क्रम भी प्रदर्शित होता है। ३६२/३७. दूसरी पौरुषी में ज्येष्ठ अथवा अन्य गणधर धर्मदेशना देते हैं। वे राजा द्वारा आनीत सिंहासन पर अथवा भगवान् के पादपीठ पर बैठते हैं। ३६२/३८. असंख्य भवों में जो हुआ है, जो होगा तथा व्यक्ति जो कुछ भी पूछता है, उन सबका उत्तर गणधर देते हैं। प्रश्नकर्ता यह नहीं जान पाता कि गणधर छद्मस्थ है या अतिशयधारी नहीं है। ३६३. देवताओं द्वारा किए गए दिव्य घोष को सुनकर यज्ञवाट में एकत्रित ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा कि याज्ञिक ने यज्ञ किया इसलिए देव यहां आ रहे हैं। ३६३/१. लाल अशोक वृक्ष के नीचे भगवान् सिंहासन पर बैठते हैं। इन्द्र भगवान् के ऊपर स्वर्णमय जाल से युक्त छत्र को स्वयं धारण करता है। ३६३/२. प्रसन्नचित्त देवों के साथ ईशानेन्द्र और चमरेन्द्र श्वेत मणिमय दंड से युक्त दो चामरों को भगवान् के दाएं-बाएं डुलाते हैं। ३६४. उन्नत और विशाल कुल-वंशों में उत्पन्न सभी ग्यारह गणधर मध्यम पावा के यज्ञवाट में आए। ३६५,३६६. भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर ये हैं१. इन्द्रभूति ५. सुधर्मा
अचलभ्राता २. अग्निभूति
मंडित
१०. मेतार्य ३. वायुभूति ७. मौर्यपुत्र
११. प्रभास ४. व्यक्त
अकंपित ३६७. सभी गणधरों के अभिनिष्क्रमण के कारण का मैं क्रमशः कथन करूंगा। सुधर्मा से तीर्थ चला। शेष
१. शिष्य और आचार्य के क्रम का तात्पर्य यह है कि आचार्य से सुनकर योग्य शिष्य आचार्य द्वारा कथित तथ्यों का आचार्य
के अर्थानुरूप व्याख्या करे (आवहाटी. १ पृ. १६०)।
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