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आवश्यक नियुक्ति के समान लगता है। ३६२/१८. (तीर्थंकरों की रूप-सम्पदा उत्कृष्ट होती है) तीर्थंकरों के रूप से अनन्तगुणहीन रूप गणधरों का, उनसे अनन्तगुणहीन आहारक शरीर का, उनसे अनन्तगुणहीन अनुत्तर वैमानिक देवों का, उनसे अनन्तगुणहीन उपरिम ग्रैवेयक देवों का, सौधर्म तक के देवलोकों में प्रत्येक का अनन्तगुणहीन होता है। फिर अनन्तगुणहीन भवनवासी देवों का, उनसे अनन्तगुणहीन ज्योतिष्क देवों का, उनसे अनंतगुणहीन व्यन्तर देवों का, उनसे अनन्तगुणहीन चक्रवर्ती का, उससे अनन्तगुणहीन वासुदेव का, उससे अनन्तगुणहीन बलदेव का, उससे अनन्तगुणहीन मांडलिक राजाओं का होता है। शेष सभी राजा और सामान्य लोग छहस्थानपतित रूप वाले होते हैं । ३६२/१९. तीर्थंकर के संहनन, रूप, संस्थान, वर्ण, गति, सत्त्व, सार, उच्छ्वास-ये सभी अनुत्तर होते हैं। इनका मूल आधार है-शुभनामकर्म का उदय। ३६२/२०. तीर्थंकरों के अन्य नामकर्म की प्रकृतियों का उदय भी प्रशस्त और अनुत्तर होता है। क्षयोपशम तथा उपशम में होने वाले कार्य भी अनुत्तर होते हैं । क्षायिक भाव अविकल्पनीय' अर्थात् भेद रहित होता है, ऐसा गणधर कहते हैं। ३६२/२१. तीर्थंकर के असाता वेदनीय आदि जो कर्म-प्रकृतियां अशुभ होती हैं, वे भी दूध में निम्ब रस के बिन्दु की भांति अशुभ नहीं होती। ३६२/२२. धर्म के उदय से रूप की प्राप्ति होती है। रूपवान् व्यक्ति भी यदि धर्म करते हैं तो धर्म अवश्य करना चाहिए, यह श्रोताओं की भावना होती है। सुरूप व्यक्ति का वाक्य आदेय होता है, ग्राह्य होता है इसलिए हम भगवान् के रूप की प्रशंसा करते हैं। ३६२/२३. संशय करने वाले संख्यातीत प्राणियों के संशयों का निवारण असंख्य काल में भी ‘क्रमव्याकरण' दोष से नहीं हो सकता अत: भगवान् एक साथ सबके संशयों का निवारण करते हैं। ३६२/२४. भगवान् का सभी प्राणियों के प्रति तुल्यभाव रहता है। उनकी यह विशेष ऋद्धि है कि वे एक साथ सभी के संशय दूर कर देते हैं, अकालहरण अर्थात् संशय-विच्छित्ति से पूर्व किसी की मृत्यु नहीं होती। इसी गुण के कारण सर्वज्ञता की प्रतीति होती है। भगवान् अचिन्त्य गुण-संपदा से युक्त होते हैं अत: वे युगपत् कथन करने में समर्थ होते हैं।
१. छह स्थान ये हैं-अनन्तभागहीन, असंख्येयभागहीन, संख्येयभागहीन अथवा संख्येयगुणहीन, असंख्येयगुणहीन,
अनन्तगुणहीन। २. आवचू. १ पृ. ३३०, क्षायिकगुणसमुदायं अविकल्पं एगलक्षणं सव्वुत्तमं-कर्मों के क्षय से निष्पन्न गणों में कोई विकल्प
या भेद नहीं होता। वे सब एक समान लक्षण वाले और सर्वोत्तम होते हैं। ३. क्रम-व्याकरण का तात्पर्य है क्रमशः एक के बाद दूसरे व्यक्ति के प्रश्नों का समाधान । क्रम से संशय दूर करने से किसी
संशयालु की संशय-निवारण से पूर्व भी मृत्यु हो सकती है। भगवान के पास आकर कोई भी व्यक्ति संशय-निवृत्ति के बिना नहीं रह सकता।
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