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________________ आवश्यक नियुक्ति २११ में माहेन्द्र नामक क्षत्रिय सिन्दीकंडक (खजूर के कंडे) से भगवान् पर प्रहार करने दौड़ा। सनत्कुमार देव ने उसे निवारित किया। नंदीग्राम में पिता सिद्धार्थ के मित्र नंदी ने भगवान् की पूजा-अर्चा की। मेंढिकग्राम में एक ग्वाला भगवान् को त्रास देने लगा। इन्द्र ने उसे निवारित किया। ३३४,३३५. कौशाम्बी नगरी में राजा शतानीक का राज्य । भगवान् ने पोष कृष्णा प्रतिपदा को एक अभिग्रह लिया। चार मास तक कौशाम्बी में भिक्षा के लिए घूमते रहे। मृगावती रानी को भी ज्ञात नहीं हुआ। एक बार अमात्य सुगुप्त की पत्नी नंदा के घर। विजया नाम की प्रतिहारिणी। धर्मपाठक/चंपा/ दधिवाहन/ वसुमती/विजय/धनावह सेठ/मूला/ लोचन/संपुल//दान/प्रव्रज्या। ३३६. वहां से सुमंगला नामक गांव में सनत्कुमार देव ने भगवान् की वंदना और सुखपृच्छा की। सुक्षेत्र में जाने पर माहेन्द्र सुखपृच्छा करने आया। पालक ग्राम में वाइल नामक वणिक् महावीर को देख अमंगल की कल्पना कर तलवार से प्रहार करने चला।' ३३७. चंपा में स्वातिदत्त ब्राह्मण के यहां चातुर्मास । वहां दो यक्षेन्द्रों द्वारा पर्युपासना। स्वातिदत्त ने प्रदेशनउपदेश और प्रत्याख्यान इन दो विषयों में प्रश्न पूछे। भगवान् ने इन दोनों के दो-दो प्रकार बताए । ३३८. जृम्भिक गांव में देवेन्द्र ने यह घोषणा की कि भगवान् को (इतने दिनों में) केवलज्ञान की प्राप्ति होगी। वहां से भगवान् मेंढिकग्राम में गए। वहां चमरेन्द्र प्रियपृच्छा करने आया। ३३९. छम्माणि गांव में ग्वाले का उपद्रव। उसने भगवान् के कानों में शलाकाएं ठोक दीं। मध्यम पावा में सिद्धार्थ वणिक् के मित्र खरक नामक वणिक् ने वैद्य से कान की शलाकाएं निकलवाईं। ३४०. जृम्भिक ग्राम के बाहर, वैयावृत्त्य चैत्य के पास, ऋजुबालिका नदी के तट पर, श्यामाक गृहपति के खेत में, शालवृक्ष के नीचे भगवान् उत्कटुक आसन में स्थित थे। वहां बेले की तपस्या में उनको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। ३४१-४३. महानुभाव तथा वीरों में श्रेष्ठ महावीर ने छद्मस्थकाल में जो तपस्याएं कीं, उसका मैं क्रमश: विवरण करूंगा। नौ चातुर्मासिक, छह द्विमासिक, बारह एक मासिक, बहोत्तर अर्द्धमासिक, एक छहमासिक, दो त्रैमासिक, दो ढाई मासिक, दो डेढ मासिक। ३४४. भगवान् ने भद्रा, महाभद्रा तथा सर्वतोभद्रा प्रतिमाएं कीं। इनमें क्रमशः दो, चार और दस दिन लगे। इनका अनुपालन भगवान् ने लगातार एक साथ किया। ३४५. गोचरी संबंधी अभिग्रह का कालमान पांच दिन न्यून पाण्मासिक था। यह अभिग्रह महावीर ने अव्यथित रूप से वत्स नगरी-कौशांबी में अवस्थित रहकर किया। ३४६. भगवान् ने एकरात्रिकी प्रतिमा बारह बार की। इसकी अनुपालना तेले की अंतिम रात्रि में होती थी। १-५. देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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